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________________ दानवान मुनि को तजते पाप : १ २३५ चाले यश, श्रेय, प्रतिष्ठा आदि को भी भूल जाता हूं। सात दिन के पश्चात् मुझे अपनी काया भी विस्मृत हो जाती है। इस भाँति । मेरा सारा कौशल एकाग्र हो जाता है । समस्त बाह्य और आभ्यन्तर विन एवं विकल्प लुप्त हो जाते हैं। फिर तो मैं भी व्युत्सर्जित हो जाता हूं। इसलिए मेरी क्रिया जा कृति दिव्य प्रतीत होती है।" उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी अध्ययना में भी साधु की चर्या के प्रसंग में बताया गया है कि साधु अपने गुरुदेव से पूछता है कि अब मैं तप करूँ, वैयावृत्य करूँ, स्वाध्याय करूँ या ध्यान ? इस प्रकार अपने अहं को विसर्जित करके वह गुरु आज्ञा से किसी क्रिया में लगता है, उसमें अनपे अगपको विस्तृत, विसर्जित एवं समर्पित कर भगवदाज्ञा समझकर भक्तिभाव से तन्मयतापूर्वक करता है। यही यतनापूर्ण क्रिया है । यतना की इन विशेषताओं को देखते हुए ही महर्षि गौतम के हृदय में यह जीवनसूत्र स्फुरित हुआ- 'चयंति पावाई मुणि जयंतं । ' मैं यहा यतना के एक अर्थ पर ही विश्वेषण कर सका हूं। यतना के अन्य अर्थों पर अगले प्रवचन में प्रकाश डालने का प्रयत्न करूँगा ।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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