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आनन्द प्रवचन : भाग ६
हूँ।' उसने जो कुछ कहा वह उसकी दृष्टि से ठीक ही था। यह दुखी तो नहीं मालूम हो रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर आनन्द का भाव भी नहीं झलक रहा था। निःसन्देह, आजीविका कमाना भी एक काम ही है, पर बाल मजदूर की वृत्ति में आनन्ददायक कैसे हो सकता था?
तीसरा व्यक्ति गाना गाते हुए मस्ती से फथर तोड़ रहा था। उससे भी पथिक ने वही प्रश्न किया तो वह बोला-'अजी ! मैं अपने भवगान का मन्दिर बना रहा हूं।' उसकी आंखों में चमक और चेहरे पर दमक थी, हृदय में भव्यभावपूर्ण गीत था। उसकी दृष्टि में पत्थर तोड़ना, मन्दिर निर्माण जिाना ही गौरवपूर्ण कार्य था। उसे अपनी क्रिया में अपूर्व आनन्द आ रहा था |
मैं आपसे पूछता हूं कि इन तीनों की फथर तोड़ने की क्रिया एक होते हुए भी उत्तर तीन तरह के क्यों थे? इसलिए थे कि जया के प्रति एक ही दृष्टि बेगार की-सी थी, दूसरे की थी मजदूरी की और तीसरे की थी समर्पण वृत्ति या भक्ति भाव की। इन तीनों में से तीसरे श्रमिक की दृष्टि अपनी क्रिया के पीछे यथार्थ थी।
तात्पर्य यह है कि क्रिया तो वही है, लेकिन दृष्टि बिन्दु भिन्न होने से फूल ही शूल बन जाते हैं और शूल भी फूल। यतना : विसर्जित एवं समर्पित क्रिया
साधक की किसी प्रवृत्ति या क्रिया में प्रवृत्त होते हुए अपने आपको उसी क्रिया में तल्लीन कर दे, समर्पित कर दे, और वीतराग प्रभु की आज्ञा समझकर भक्तिभाव से उस क्रिया को मस्ती और सावधानी के साथ करे तो उस यलवान साधक के पास कहाँ फटक सकते हैं ? पाप वहीं आते हैं, जिस क्रिया के साथ क्रोध, अभिमान, स्वार्थ, लोभ, माया, ओह आदि दूषित भाव हों, वहाँ। क्रेया चाहे फूंक-फूंककर की जाए, फिर भी उपर्युक्त विकारों के कारण बह क्रिया यतानापूर्ण नहीं बनती, वह धर्म या पुण्य के बजाय पाप ही प्रतिफल के रूप में लाती है।
इसलिए यतनापूर्ण क्रिया का रहस्य यही है कि साधक अपने 'मैं' को विसर्जित कर दे, 'अप्पाणं बोसिरामि' कर दे, और चित्ता को उस क्रिया में तन्मय कर दे।
ध्यांगत्सु ने एक बढ़ई के बारे मे कहा कि वह कोई चीज बनाता तो इतनी सुन्दर और आकर्षक होती कि लोग कहते थे—यह किसी मनुष्य की कृति नहीं, देवता की है। एक राजा ने उस बढ़ई से पूछा--"तुम्हारी कलापूर्ण क्रिया में क्या जादू है ?" वह बोला-"जादू कुछ नहीं, राजन् ! थोड़ी मो सावधानी की बात है। मैं किसी चीज को बनाने की क्रिया प्रारम्भ करने से पहले अपने आपको मिटा देता हूं। सबसे पहले मैं अपनी प्राणशक्ति के अपव्यय को रोकता हूँ, साथ ही चित्त को पूर्णतः शान्त बनाता हूं। तीन दिन इसी स्थिति में रहने पर मैं उमाबस्तु निर्माण क्रिया से होने वाले मुनाफे, लाभ आदि की बात से विस्मृत हो जाता हूं। पांच दिनों के बाद तो मैं उससे मिलने