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________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप: २३३ जिनवरों में श्रेष्ठ श्री वर्धमान जिनेश्व के प्रति की गई एक ही नमस्कार क्रिया नर या नारी को तार देती है, भवसागर से पाए लगा देती है। क्या आपने मगध सम्राट् श्रेणिक राजा की वह कथा नहीं सुनी कि एक बार सहसा उसके मन में तीव्र भावना जगी कि मैं हमेशा भगवान महावीर स्वामी तथा कुछ खास-खास साधुओं को ही बन्दन करके बैठ जाता हूं। आज इच्छा होती है, क्रमशः सभी साधुओं को विधिपूर्वक बन्दना करूं! बस, श्रेणिक राजा क्रमशः वन्दन करते गये। अभ्यास न होने से वे सभी साधुओं को बन्दन न कर पाये, हॉफ गये थे। इसलिए बीच में ही थककर बैठ गये। गपाधर गौतम स्वामी की अद्भुत जिज्ञासा स्फुरित हुई, उन्होंने भगवान महावीर से श्रेणिक की आज की वन्दनक्रिया का फल पूछा। प्रभु महावीर ने फरमाया--- "गौतम ! इस उत्साह एवं भावपूर्वक वन्दन से श्रेणिक के नरकगति के बहुत-से बन्धन कऽ गये हैं। अब थोड़े-से और रहे हैं।' , श्रेणिक ने सुना तो अवशिष्ट साधुओं को बन्दन करने का उत्साह जगा और वह बन्दन करने के लिए उद्यत हुए। लेकिन भगवान महावीर ने कहा—अब इस बन्दन के साथ कांक्षा का भाव उदित हो गया है, इसलिए इसमें अब नरक बन्धन काटने की शक्ति नहीं है।" बन्धुओ ! बन्दनक्रिया तो वैसी की वैसी ही थी। किन्तु पहले की क्रिया और बाद की क्रिया में अन्तर क्यों पड़ा ? उसका कारण था कि पहले की वन्दन क्रिया निष्काम, निष्कांक्ष थी, बाद की थी सकांक्ष अनः पहले की वन्दन क्रिया भावयुक्त द्रव्य क्रिया थी जबकि बाद की थी केवल द्रव्यक्रिया। संत कबीर इसी रहस्य को एक दोहे द्वारा खोल रहे हैं नमन नमन बहु आंतरा, नमन-नमन बहु वान । ये तीनों बहुतें नमें, चीता, चोर, कमान ।। आचार्य सिद्धसेन इसी बात को प्रगट कर रहे हैं यस्मात् क्रियाः प्रतिफलोत्त च भावशून्याः 'भावशून्य क्रियाएं वास्तविक प्रतिफल रहीं देतीं।' क्रिया एक : दृष्टिबिन्दु मैं आपको एक व्यावहारिक उदाहरण देकर इसे समझाता हूं एक जगह देवालय बन रहा था। तीन मजदूर धूप में बैठे उसके लिए पत्थर तोड़ रहे थे। एक पधिक वहाँ से गुजरा। उसने तीनों में से एक से पूछा- "तुम क्या कर रहे हो ?" उसने दुखित और बोझिल मनसे कहा---'पत्थर तोड़ रहा हूं।' वास्तव में पत्थर तोड़ना उसके लिए आनन्द की बात केसे हो सकती थी, जिसका मन हारा, थका और उदास हो। अतः वह उत्तर देकर फिर उदास मन से पत्थर तोड़ने लगा। पथिक ने दूसरे से यही सवाल पूछा तो उसने कहा-'मैं अपनी रोजी कमा रहा
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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