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आनन्द प्रवचन : भाग ६
अपने संघाड़े के वृद्ध साधुओं को गिना-गिनाकर गर्जन-तर्जन करके करता है। ___मैं आपसे पूछता हूँ कि प्रमार्जनक्रिया तो दोनों जगह एक सी है, दोनों कमरे एक ही साइज के हैं, उतनी ही सफाई दोनों करते हैं. लेकिन क्या दोनों की प्रमार्जन-क्रिया में भावों और परिणामों की दृष्टि से अन्तर नहीं है ? अवश्य ही अन्तर है, लाख गुना अन्तर है। पहले साधु की प्रमार्जनक्रिया केल्न द्रव्यक्रिया नहीं, भावक्रिया भी है, जबकि दूसरे की प्रमार्जनक्रिया केवल द्रव्यक्रिया है—निर्जीव-सी क्रिया है।
सफाई की क्रिया तो हमारी ये बहनें भी करती हैं और मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भक्ता शबरी भी करती थी। वह जंगल में ऋथियों के आश्रम से पप्पा सरोबर तक का मार्ग जो कि कंकरीला व कटीला था, प्रतिदिन सबेरे पौ फटते समय साफ करती थी। वह भजन गाती, भक्ति की मस्ती में बहुत ही उमंग से समग्र मन की सफाई की क्रिया में तन्मय करके सफाई करती थी। वह इस भागना से सफाई करती थी कि इस रास्ते से पवित्र ऋषियों का आवागमन होता है, उनके हाणों में काँटे कंकड़ न चुभे, वे शान्ति से इस पथ को पार करें और मुझे उनकी चरणरज मिले। कितनी उच्च भावना और भक्ति थी सफाई की क्रिया के पीछे ! शबरी का इस सफाई क्रिया के पीछे अपना निजी स्वार्थ, पद या नामबरी की लिप्सा नहीं थी न ही ऋषियों से कोई प्रशंसा या अभिनन्दन पाने की धुन थी, उलटे शबरी को इस सफाई क्रिया से उस समय गालियों और भर्त्सना की बौछार ही पल्ले पड़ी, जबकि ऋषियों ने एक दिन प्रतिदिन से कुछ जल्दी आकर उस मार्ग की सफाई करते हुए शबरी को देखा लिया। वे कहने लगे -"अरी दुष्टे ! तूने हमारे मार्ग को अपवित्र कर दिया, हम तो इतने दिन जानते ही नहीं थे कि तू इस मार्ग को साफ करती है, नहीं तो हम तुझे कभी के यहाँ से धक्का देकर निकाल देते।
आज तुझ काली कलूटा शुद्रा का मुख देोकी को मिला है, पता नहीं, दिन कैसा निकलेगा?" परन्तु वह शबरी थी, जिसने गोलियों का पुरस्कार पाकर भी सफाई का कार्य नहीं छोड़ा। वह सफाई को भगवान का कार्य समझती थी। 'Work is worship' कार्य ही भगवत्पूजा है, यह मन्त्र कसे उसके रोम-रोम में बस गया था।
बन्धुओ ! क्या आप इस प्रमार्जनक्रिया को यतनायुक्त नहीं कहेंगे? मैं तो यहीं कहूँगा कि साधु भी प्रत्येक क्रिया को, इसी प्रकार समर्पणभाव से, उसी में दत्तचित्त होकर प्रभुभक्ति समझकर करे तो एक ही क्रिया से उसका बेड़ा पार हो जाएगा।
नंदीषेण मुनि ने अप्रमत और यतनाशील होकर साधुओं की वैयावृत्य (सेवा-सुश्रूषा) का कार्य तन्मयतापूर्वक किया, जिससे उनका बेड़ा पार हो गया।
मासतुष मुनि को 'भा रुष मा तुष' इन पदों की रटनक्रिया एकाग्रचित्त एवं गुरुभक्ति समझकर करते-करते केवलज्ञान प्रामा हो गया। एक जैनाचार्य ने इसी बात का समर्थन करते हुए कहा था
एको वि नमुक्कारो जिणवररुसहस्स वद्धमाणस्स। तारेड नरं वा नारी वा.....................।।