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यन्नवान मुनि को तजते पाप : १ २३१
यह है यतना का चमत्कार और यतना का विराट् रूप !
निष्कर्ष यह है कि यतना में क्रिया के साथ मन का तादाम्य होने से वह क्रिया भावक्रिया बन जाती है, वही फलदायिनी होती है।
भावात्मक प्रमार्जन क्रिया ही यतनायुक्त
साधक के जीवन में छोटी या बड़ी प्रत्येक क्रिया महत्वपूर्ण है। जैसे प्रमार्जन क्रिया है— साधक जिस उपाश्रय में रहता है, या जिस कमरे में उसका निवास हैं, वहाँ की सफाई करना है। सफाई करने की क्रिया को साधारण बुद्धि वाले सांसारिक लोग बहुत तुच्छ कह देते हैं। कई धनाभिमानी, पदाभिमानी या सत्ताभिमानी लोग तो तुरन्त कह देते हैं-"सफाई करना जो नौकरों का काम है।" इसी प्रकार टट्टी की सफाई करना तो मेहतरों या हरिजनों का काम कहकर उसे तुच्छ समझते हैं, पर क्या बालक की टट्टी साफ करने वाली माता बालक के लिए तुच्छ या ओछी होती है, वह तो पूजनीय होती है। माता का दर्जा बहुत ही ऊँचा है। बालक की सेवा करने में माता एकदम तन्मय हो जाती है, उसे उस सेजा में आनन्द आता है। इसी प्रकार रुग्ण साधु की सेवा करना साधु के लिए तुच्छ ब्रित्या नहीं है, वह उस क्रिया को तन्मयता एवं मन लगाकर करता है तो महानिर्जरा का लेता है। इसी प्रकार सफाई (प्रभार्जन) क्रिया भी साधु के लिए तुच्छ नहीं। वह उसे तुच्छ नहीं समझता, वरन् एकाग्रता एवं यतनापूर्वक करता है तो उस क्रिया से भी महान् निर्जरा कर सकता है। बुजुर्ग साधुओं के मुँह से सुना है कि रजोहरण से यतनापूर्वक प्रमार्जन क्रिया करने से एक तेले (तीन उपवास) का लाभ मिलता है।
मान लीजिए दो साधु हैं। दोनों के संघाड़े एक ही उपाश्रय में ठहरे हुए हैं। उनमें से एक संघाड़ा जिस कमरे में ठहरा हुआ है, उस संघाड़े का एक मुनि उस कमरे की सफाई बहुत ही ध्यानपूर्वक रजोहरण से करता है। वह प्रमार्जनक्रिया को बेगार नहीं, किन्तु निर्जरा का कारण समझकर संवाभाव से करता है। उसे इस प्रकार तन्मयतापूर्वक प्रमार्जनक्रिया से किसी से प्रशंसा पाने, अभिनन्दन प्राप्त करने या नामवरी पाने की कोई इच्छा नहीं है। वह चुपचाप इस कार्य को करता है।
दूसरा संघाड़ा उस कमरे के ठीक सामने दूसरे कमरे में ठहरा हुआ है। उस संघाड़े का एक साधु बार-बार कहने पर बिना मन से, वृद्ध साधुओं के लिहाज से उस कमरे की सफाई करता है। उस कार्य को वह बेगार समझता है, और जैसे-तैसे बिना किसी उपयोग से रजोहरम से वह कचरे को घसीट देता है। न तो वह इस प्रमार्जनक्रिया में जीव-जन्तुओं का ध्यान रखा है और न ही मन को इस क्रिया में एकाग्र करके सेवाभाव से करता है। बल्कि इस बेगार-सी अधूरी प्रमार्जनक्रिया को करके भी वह अपने भक्तों, अनुयायियों आदि से प्रशंसा पाने, या सेवाभावी पद प्राप्त करने की धुन में रहता है। वह प्रमार्जनक्रिण चुपचाप नहीं करता, किन्तु बार-बार