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________________ फानवान मुनि को तजते पाप : २ २३७ साधु-साध्वी इन ६ कारणों में से कोई एक कारण उपस्थित हो, तभी आहार-पानी ग्रहण करें--- (१) क्षुधावेदना-भूख से पीड़ित होने पर, (२) रुग्ण-ग्लान या बड़ों की सेवा के लिए, (३) ईर्यासमिति के पालन के लिए, (४) संयम को टिकाने या निभाने के लिए, (५) अपने कार्यों को टिकाने के लिए, एवं (६) धर्मचिन्तन और धर्म पालन के लिए। आहार-पानी में प्रवृत्ति के लिए यतना (विवेक) की कितनी सुन्दर बात भगवान् महावीर ने कही है। प्रथम कारण पर ही किनार कर लें-साधक सच्ची भूख लगने पर ही भोजन करे, यह प्रथम कारण का तात्पर्य है। जब साधक अत्यधिक मात्रा में भोजन करता है, या अनियमित रूप से भोजन करुा है, तब भूख मर जाती है। वह सच्ची भूख नहीं होती। अतः इस विषय में यतना करना आवश्यक है। भगवद्गीता में योगी के आहार के सम्बन्ध में बताया गया है 'नात्यश्नतस्तु योगिऽस्ति, न चैकान्तमनश्नतः।' "अति भोजन से भी योग-साधना नानं होती, और न एकान्ततः कम खाने या बिलकुल न खाने से ।" कड़ाके की भूख लगी हो, और आहार छोड़ने का कोई भी कारण न हो, आहार-पानी भी प्रासुक् एवं एषणीय उपलब्ध हो, उस मौके पर हठपूर्वक आहार न करना, या किसी के साथ तकरार, कलह, रोष या संघर्ष हो गया हो, और आवेश में आकर आहार न करना—यतना नहीं है, बल्कि अयतना है। अधिक मात्रा में आहार करने से भोजन का पाचन ठीक रूप से नहीं हो पाता। उसके कारण उदर-शूल, गैस, अतिसार, अयोर्ण या सिरदर्द आदि कई बीमारियां हो जाती हैं। पहले का खाया हुआ पचा नहीं, उसी बीच और खाना अतिभोजन है। पचने से पूर्व खाने से पहले का भोजन कच्च रह जाता है। फिर अतिमात्रा में आहार करने पर आलस्य बुद्धि, सुस्ती, शरीर में एष्णता वृद्धि, वीर्यपात आदि दोष होंगे, साधक का मन स्वाध्याय, ध्यान- चिन्तन-मनन आदि में नहीं लगेगा। इसलिए अतिमात्रा में आहार करना प्रत्येक दृष्टि से दोषयुक्त है। इसी प्रकार असंतुलित एवं अनियमित आहार करना भी शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। अत्यन्त कमखाना या बिना ही कारण के आवेशवश या सनक में आकर भोजन बिल्कुल न करना मी संयम साधना की दृष्टि से गलत है। कई लोग एक ही बार में दोनों टाइमका आहार ढूंस लेते हैं, वह भी स्वास्थ्य, ब्रह्मचर्य आदि की दृष्टि से हानिकारक है। नई डॉक्टर रोगियों को सलाह देते हैं कि
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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