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________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : १ २२७ मात्र से कर्मबन्धन नहीं होता।" इसका कारण यह है कि जो यत्नापूर्वक क्रिया करता है, उसकी भावना हिंसा करने की कतई नहीं हैं, लाचारीवश हिंसा हो जाती है, पर वह द्रव्यहिंसा, उसके लिए पापकर्मबन्धक नहीं होती। यही बात कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कही है। प्रवचनसार में यत्नाचारी को पापकर्मबन्ध न होने का कारण बताया है-चरविजदं जदिणिच्चं, कमलगंव जले णिरुवलेवी । जो साधक हमेशा प्रत्येक कार्य यतनशूर्वक करता है, वह जल में कमल की भाँति निर्लेप रहता है। पापकर्म से वह लिप्त नहीं होता। निष्पाप जीवन जीने के लिए यतना अनिवार्य ताई है। इसी कारण जैन साधुओं को यतना की चतुर्विध विधि प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ यतना की विधि बताते हुए उत्तराध्ययन' में उसके ४ प्रकार बताये गये हैं (१) द्रव्य से (३) काल से और ( २ ( क्षेत्र से ( ४ ( भाव से द्रव्य से यतना है—-आँखों (हृदय की आँखों) से भूमि या परिस्थिति देखना, क्षेत्र सेयुगमात्र (चार हाथ प्रमाण ) भूमि देखन (गमन के सिवाय अन्य क्रियाओं के विषय में कौन-सा क्षेत्र है ? यह विवेक करन, काल से—जब तक भ्रमणादि क्रिया करणीय हो तब तक ही वह क्रिया करना, समय का विवेक करना। भाव से उस क्रिया में उपयुक्त दत्तचित्त होकर करना । प्रतीक क्रिया को यतना की इस चतुर्विध कसौटी पर कसकर करना चाहिए। जयणा का अर्थ संक्षेप में इतना ही समझना चाहिए कि साधक के जीवन की प्रत्येक छोटी-बड़ी प्रवृत्ति भावक्रियात्माक होनी चाहिए। जो भी क्रिया वह करे, उसमें उसका मन उपयुक्त — जुड़ा हुआ होना चाहिए। साधक चले तो उसका मन चलने में संलग्न रहे, साधक बैठे तो उसका मन बैठनि में रहे साधक बोले, सोए, जागे, खाए-पीए या स्वाध्याय करे, उपदेश दे, अथवा भिक्षाचारी करे या कोई भी क्रिया करे, उसका मन श्वासोच्छ्वास की तरह बराबर उसके साथ रहे। उत्तराध्ययन सूत्र में साधक के चलने की क्रिया की यतना विधि बताई गई 15 इंदियत्ये विवज्जिसा, सजायं चैव पंचहा। तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे उवउत्ते दरियं रए । । - २४ / ८ 9 दब्बओ, खेसओ चेव कालओ भावओ तहा। जयणा चउब्विहा कुत्ता, तं में कित्तयओ सुण ।।७।। दम्बओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं च खेतओ । कालो जाव रीएज्जा, उवउत्ते व भावओ।। ८ ।। उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २४
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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