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आनन्द प्रवचन: भाग
"साधक जब गमनादि चर्या करे तब मन को इन्द्रियों के विषयों से बिलकुल हटा ले. वाचना-पच्छना आदि ५ प्रकार के स्वाध्यम से भी मन को दर कर ले. एकमात्र उसी चर्या में मन को केन्द्रित कर ले, उसी छों को सामने रखे, इस प्रकार उपयुक्त होकर ईर्या में रत रहे।"
यतनापूर्वक चलने और अयतनापूर्वक जानने की क्या पहिचान है तथा इनसे क्या लाभ-हानि है ? इसे मैं एक दृष्टान्त द्वारा समझामा हूँ
दो मुनि चल रहे हैं। उनमें से एक मुनि ईर्यासमितिपूर्वक यतना से चल रहे हैं, उनकी गमनक्रिया के साथ मन संलग्न है। जीवरक्षा का लक्ष्य है। जबकि दूसरे मुनि इधर-उधर ताकते हुए धड़ाधड़ जा रहे हैं, उनका ध्यान ई-शोधन की ओर नहीं है, उनका मन गमनक्रिया के साथ उपयुक्त नहीं है ।।
प्रथम मुनि के द्वारा बचाने का यल किये जाने पर भी अकस्मात कोई त्रस जीव पैर के नीचे दबकर कुचल गया या मर गया। दूसरे मुनि के द्वारा अयतनापूर्वक चलने पर भी एक भी त्रस जीव न मरा| आपकी वाष्टे में शायद पहला यलबान मुनि सदोष
और दूसरा अयलबान मुनि निर्दोष प्रतीत होगा, पर वीतराग प्रभु की दृष्टि में प्रथम मुनि द्रव्यहिंसा के भागी जरूर हैं, पर भावर्हिगमा के नहीं, जबकि दूसरा मुनि भावहिंसक है, षट्काय के जीवों का विराधक है।
द्रव्यहिंसा से भावहिंसा अति भयंकर और पापकर्मबन्धक है।
प्रथम मुनि यलवान होने से आराधक है। उसकी इन्द्रियाँ जीवमात्र के प्राणों को बचाने में यलवान थीं, तथापि लाचारीवश जी द्रव्यहिंसा हो गई, उसका उसे पश्चात्ताप होता है, प्रायश्चित भी वह करता है, लेकिन दूसरा मुनि तो अयत्नशील होने से विराधक होता है। उसमें जीवों की प्राणरक्षा करने का यल ही नहीं है।
निष्कर्ष यह है कि जिस समय जो प्रत्ति, चर्या या क्रिया की जाए उसी में मन को पूरी शक्ति से सर्वतोभावेन लगाना ही यत्मा है, जयणा है, यलाचार है। इस प्रकार एक ही अभीष्ट क्रिया में शक्ति लगाने से वह क्रिया निखर जाती है, वह क्रिया दोषमुक्त और शुद्ध हो जाती है। उस पनि क्रिया से अपना भी कल्याण होता है, दूसरों का भी। ऐसा न करने पर साधक का मन कहीं और होगा और क्रिया कुछ और होगी। सामायिक जैसी क्रिया भी केवल व्यक्रिया और निष्फल क्रिया होकर रह जाएगी। एक जैनाचार्य ने इस सम्बन्ध में बहुत ही गम्भीरतापूर्वक प्रतिपादन किया
यलं विना धर्मविधावपीह, प्रवर्तमानोऽसुमतां विधातम् । करोति यस्माच्च ततो विधेयो धर्मात्मना सर्वषदेषु यत्नः।।'
१ दर्शन० १ तत्त्व