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आनन्द प्रवचन : भाग ६
चाहे वह मानसिक हो, वाचिक हो अथवा कायक हो, स्वसम्बन्धित हो या दूसरों की सेवा से सम्बन्धित हो, यतना को श्वासोच्छ्वासाकी तरह साथ लेकर चलना चाहिए।
महानिशीथ में तो यहाँ तक बताया गया है कि साधु को श्वास लेने और छोड़ने की क्रिया भी यतनापूर्वक करनी चाहिए, लापरवाही से अयतनापूर्वक नहीं। जो साधु अयतनापूर्वक श्वासोच्छ्वास क्रिया करता है, आको धर्म कहाँ से होगा, तप भी कहाँ से होगा ?" यतना : किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचाते ए क्रिया
तात्पर्य यह है कि यतना किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुंचाते हुए, अपनी आत्मा को ज्ञान-दर्शन-चारित्र की पगडंडी पर चलाते हुए सुख-शान्तिपूर्वक जीने की कला है। यतना में यद्यपि प्रवृत्ति मुख्य प्रतीक होती है, परन्तु प्रवृत्ति एकान्तरूप से मुख्य नहीं है, कई जगह अमुक क्रिया अच्छी और धार्मिक होते हुए भी उससे निवृत्ति लेनी पड़ती है, क्योंकि उसमें प्रवृत्त होने से पृथ्कोकायिक आदि जीवों की विराधना होने की आशंका रहती है। इसलिए यतना का एक अर्थ पृथ्वी आदि जीवों के आरम्म का त्याग करने रूप यत्न भी किया गया है। अयतना से हानि, यतना से लाभ
साथ ही वहाँ यह भी बताया गया है। के "अयतनापूर्वक जो साधु चलता है, बोलता है, बैठता, उठता है, सोता-जागता है, भोजन करता है.--यानी सभी क्रियाएँ करता है, वह प्राणियों की हिंसा करता है। म्ह पाप कर्म का बंध करता है, जिसका फल अत्यन्त कटु होता है।" प्रवचनसार में भी यह बताया गया है--
मस्व जियदुर जीवो, अबदाधारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
पयादस्स पत्ति बंबो, हिंगामेत्तेण समिदस्स।। "बाहर से प्राणी मरे या न मरे—जीता रहे, लेकिन जो अयलापूर्वक आचरण करता है, उसे (भाव) हिंसा निश्चित (अवाप्रव) ही लगती है। इसके विपरीत जो यतनाशील है, ईर्यासमिति आदि पूर्वक प्रवृत्ति करता है, उसे बाह्य (द्रव्य) हिंसा होने
, "जेसि मोतूण ऊसास नीसासं वाणुजाणिप तमपि जयणाए।
न सव्वहा अजयणाए, ऊससंसतस्स कओ धिम्मो, कओ तबो ?"-महा०६ अध्य० २ "पृथिव्यादिस्वारम्भ परिहाररूपे यले"
-दशवैकालिक अ०४ ३ "अजयं चरमाणो (चिदमाणो, आसमायो, सयमाणो, भुंजमाणो, भासभाणो) व पाणभूयाई हिंसइ । बंबई पावयं कम्मं तकी होइ कापफलं ।'
-दशवाकालिक सूत्र, अ०४