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यत्नवान मुनि को तजते पाप :१
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हाँ तो, यतना यानी क्रिया में मन' की उपयुक्तता। किसी भी प्रवृत्ति के विषय में मन आत्मा के प्रति वफादारीपूर्वक इस प्रकार विश्लेषण करने के बाद ही उस प्रवृत्ति को करने का आदेश देगा। मान लो कि साधु वे जाने के रास्ते में हरी वनस्पति उगी हुई है। या संचित्त जल चारों ओर फैला हुआ है, अग्नि जल रही है या मूसलाधार वर्षा हो रही है। ऐसी स्थिति में साधु अगर अभीष्ट कार्य के लिए कहीं जाएगा तो उसके अहिंसा महाव्रत में आँच आएगी, परन्तु उस्। रास्ते के सिवाय और कोई रास्ता वहाँ जाने का नहीं है, या और कोई चारा नहीं है। तब शास्त्रकार वहाँ यलाचार की बात कहते हैं। अर्थात् साधु वहाँ जाएगा अवश्य, लेकिन जाएगा यलाचारपूर्वक ईर्यासमितिपूर्वक देखते हुए जाएगा। जैसा कि दशवैकालिक सूत्र में कहा है.---
"सइ अन्नेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे।" "पुरओ जुगमायाए पेहमाणो महिं चरे।"
"चरे मंदमणुविग्मो आखित्तेण चेयसा।" और कोई मार्ग न हो तो उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाए। सामने युगमात्र (चार हाथ प्रमाण) भूमि को देखता हुआ चले। साल भिक्षा का समय होने पर हड़बड़ी किये बिना, अनुद्विग्न होकर अव्यग्रचित से धीरे-धीं चले।
इस प्रकार एक गमनक्रिया के पीछे जहाँ सैकड़ों 'ना' हैं, वहाँ अमुक 'हाँ' भी हैं। गमनक्रिया के विषय में कहा गया है, से ही खड़ा रहने, बोलने, बैठने, सोने, जागने, भोजन करने, भिक्षा करने, व्याख्यान देने, विहार करने, नीहार करने आदि प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति के विषय में साधु जतना को टार्च की तरह साथ रखेगा। यतना साधु के लिए प्रकाश है, मार्गदर्शक है, यह उसको कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर ले जाने वाली है। इसीलिए प्रतिमाशतक में याना के विषय में कहा है
जयणेह धम्मस्स जयणी, जगणा धम्मस्स पालणी चेव । तवबुढिकरी जयणा, एगंत मुहावहा जयणा ।।५।। जयणाए वट्टमाणो जीवो। सम्मत्त-नाण-चरणाणं।
सद्धाबोहासेवणभावेणाऽऽराहगी भणिओ।।५।। साधक जीवन की प्रत्येक क्रिया-प्रवृति में यतना धर्म की जननी है, यतना ही धर्म की रक्षिका है, यतना अनायाप्त ही तप की वृद्धि कर देती है, और यतना ही संयमी जीवन के लिए एकान्त सुख देने वाली है।।
जो साधक यतनापूर्वक प्रवृत्ति करता है, वह श्रद्धा, योध और चारित्र पालन की भावना के कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का आराधक कहा गया है।
तात्पर्य यह है कि साधु को प्रत्येक प्रवृत्ति में, चाहे वह छोटी प्रवृत्ति हो या बड़ी,
"यमनं यतः, तद्विद्यते यस्य स यतः।" 'यतमान'--उत्तराध्ययन । "उपयुक्त'---आवश्यक। "यतं चरेत्---सूत्रोपदेशेन ईर्यासमितः।" "उपयुक्तस्ययुगमात्र दृष्टत्वे च" ----आचारांग श्रु० २, अ०३, उ०१