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आनन्द प्रवचन भाग ६
गाड़ीवान का है, क्योंकि बैलगाड़ी चलाने और उसे नियन्त्रण में रखने की सारी जिम्मेदारी उसी की थी। शरीर द्वारा किसी कार्य को सफल बनाने में मन का अधिक उत्तरदायित्व माना जाता है, क्योंकि वही उसका संचालक या नियामक है। उसी के आदेश से शरीर के अन्य अवयव काम पर जुटते हैं। इसलिए यतना का अर्थ हुआ— जो भी करो तन्मय होकर करो, उस क्रिया में उपयुक्त होकर करो।
क्रिया में उपयोगशून्यता ही अयतना है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी प्रवृत्ति में वाणी और शरीर (शरीर के अंगोपांग, इन्द्रियाँ आदि) के साथ मन का रहना आवश्यक है। मन के आश्रित होकर, मन कि आदेशानुसार जब वाणी और शरीर चलेंगे तो वह प्रवृत्ति सजीव बन जाएगी और यदि मन इन दोनों के साथ नहीं रहेगा तो यह निर्जीव-सी हो जाएगी। जब किसी प्रवृत्ति के साथ मन प्रधानरूपेण होगा तो वह सर्वप्रथम उस प्रवृत्ति की छानबीन करेगा, तदन्तर शरीर, इन्द्रियों, अवयवों एवं वाणी को आदेश देगा कि यह प्रवृत्ति की छान-बीन करेगा, तदनन्तर शरीर, इन्द्रियों, अवयवों एवं वाणी को आदेश देगा कि यह प्रवृत्ति करकी चाहिए या नहीं ?
समझ लो, किसी व्यक्ति को कहीं आगे का निमन्त्रण मिला। ऐसी दशा में मन यह विचार करेगा कि वहाँ जाना या नहीं ? वहाँ जाने से कोई व्यावहारिक आत्मिक या नैतिक लाभ है या नहीं ? वहाँ जाने से नीति और धर्म को खतरा है या प्राणों का संकट है, अथवा वहाँ जाने से कलह होने या बढ़ने का अंदेशा है तो मन तुरन्त इन्द्रियों और अवयवों को आदेश देगा कि यद्यपि वहाँ जाने से अच्छा स्वादिष्ट आहार मिल सकता है, रमणीक सौन्दर्य का पान हो सकता है, वहाँ स्वागत हो सकता है, तुम्हारे रूप पर महिला आकर्षित हो सकती है, परन्तु से लाभ खतरे की निशानी है । इसीलिए साधक को अमुक-अमुक स्थानों पर जाने का निषेध शास्त्रकारों ने किया है
"न चरेञ्ज वेससामंते बंभचेर "संडिभं कलहं जुद्धं दूरओ
बसाणुए।" परिवज्जए। "
"ब्रह्मचर्य के पथ पर चलने वाला राम्रधक वेश्याओं के मोहल्ले या घरों में न जाए । तकरार, विवाद, कलह या युद्ध हो, उसको दूर से ही छोड़ दे, वहाँ न जाए।
भिक्षा के लिए साधु निन्दित और ग-जुगुप्सित कुलों में न जाए। क्योंकि वहाँ जाने से साधु के प्रति लोक श्रद्धा समापा हो सकती है, साधु स्वच्छन्द वन सकता है । शराव बेचने वाले कलाल के घर या दूवतान पर यदि कोई साधु चला जाए या वहाँ जाकर बैठे, गप-शप करे तो लोगों को उस साधु के विषय में मद्य पायी होने का सन्देह हो सकता है। साधु को कहीं नट-नटनियों का खेल-तमाशा या नाटक देखने के लिए आमन्त्रित किया जाए तो क्या वह वहाँ जाएगा ? क्या उसका मन उस गमन-प्रवृत्ति में मोहवृद्धि का खतरा नहीं देखेगा।