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________________ ३२. यत्नवान मुनि को तजते पाप : १ धर्मप्रेमी बन्धुओ! आज मै मुनि जीवन के एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व पर चर्चा करना चाहता हूं, जिस तत्त्व के अपनाने में, जिसे जीवन में श्वासोच्छवास के साथ रमा लेने से मुनि जीवन चमक उठता है, मुनि जीवन में लगे हुए पुराने पाप-ताप नष्ट हो जाते हैं और नयेपाप उसके पास नहीं फटकते, उसके जीवन को देखते ही पाप पलायित हो जाते हैं। वह तत्त्व है—यल या यतना। गौतमकुलक का। यह अट्ठाइसवाँ जीवनसूत्र है, जिसमें महर्षि गौतम ने बताया है "चयंति पावाइ मणे जयंत" "यत्नवान मुनि को पाप छोड़ देते हैं।" यत्नवान के विभिन्न वर्ग आपके दिमाग में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यलवान किसे कहते हैं ? जैनशास्त्रों के सिवाय अन्य धर्मग्रन्थों या साहित्य में यत्नवान शब्द का सामान्यतया यही अर्थ समझा जाता है— “जो प्रयल करता हो, मेहनत करता हो।" श्रम, मेहनत या प्रयत्न करने वाले लोग तो दुनिया में पापी, चोर, लुटेरे, हत्यारे, चेश्या, जुआरी, व्यभिचारी आदि बहुत-से हैं से लोगों का प्रयल उन्हें पाप से कभी मुक्त नहीं कर सकता। जब तक वे पापकर्मों को छोड़कर अभीष्ट धर्म की दिशा में प्रयल नहीं करते, तब तक उन्हें पाप छोड़ दें, पह तो दरकिनार रहा, उलटे उनके पाप बढ़ते जाते हैं। इसलिए यलवान शब्द जैनधर्म का खास पारिभाषिक शब्द है, वह कुछ विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त होता है। यहाँ भी 'जयंत' शब्द मुनि का विशेषण है, अनुशीलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर इसके ६ अर्थ फलित होते हैं (१) यतनाशील-जयणा करने वाला (२) विवेकशील (३) सावधानी रखने वाला अप्रमत्त (४) जतन (रक्षण) करने वाला
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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