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________________ कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते दाँत और जिह्वा की मैत्री टूटने का कारण बताते हुए कहा हैदन्तान्तः परिलग्नदुःखदकणा निःसार्यते जिह्वया, तां हन्तुं सरलां सदोयमयुता न्तास्तु हन्तानुजाः । आमूला निपतन्ति दुष्टदशना जिह्वा चिरस्थायिनी, मित्रद्रोहदुरन्दुष्कृतफलैनों मुख्यते कश्चन ।। वे 'जब दाँतों के अंदर छोटे-छोटे कण चिपक जाते हैं या फाँस लग जाती है, तब बहुत ही खटकते हैं, बेचारी जिह्वा उसे निकाल देती है। किन्तु अनुज (बाद में पैदा हुए) दांत उस सरल जिह्वा को कुचलने के लिए गदा उद्यत रहते हैं। यही कारण है कि दुष्ट दाँत अपनी कृतघ्नता के कारण जड़ सहि गिर जाते हैं और जीभ चिरस्थायी रहती है। सच है, मित्र के प्रति द्रोह करने के भयंकर पाप के फलों से कोई बच नहीं सकता।" २१३ वास्तव में सच्चा मित्र मित्र के द्वारा किए गए उपकार या दिये गए ऋण को कभी भूलता नहीं है । इसलिए ऐसे सच्चे मित्र एक दूसरे को छोड़ते नहीं, परन्तु जो बनावटी मित्र होते हैं, उन्हें सच्चे मित्र छोड़ देते हैं। एक प्राचीन उदाहरण ले लीजिए—— ब्रह्म काम्पिल्लपुर नगर का राजा था। उसके एक पुत्र था। नाम था — ब्रह्मदत्त, जो आगे चलकर भारत का बारहवाँ चक्रवर्ती ससाट् बना था। जब ब्रह्मदत्त छोटा-सा बालक था, तभी उसके पिता चल बसे थे। ब्रह्मदत्त की माता का नाम चुल्लणी रानी थी । ब्रह्मदत्त के पिता ब्रह्मराजा का देहान्त होने पर राज्य संभालने वाला कोई न रहा। ब्रह्मदत्त अभी छोटा ही था। अतः रानी ने ब्रह्मरता के ४ मित्रों को राज्य संभालने के लिए बुलाया। वे चारों बारी-बारी से आकर रराज्य संभाल जाते और मित्र के प्रति अपना कर्तव्य अदा करके चल देते। उन चारों में एक मित्र था दीर्घराज । वह अपने मित्रों के प्रति द्रोह करने लगा, अपने मित्र राजा ब्रह्म की रानी चुल्लणी के साथ दुराचार सेवन करने लगा। दूसरे तीन मित्र राजाओं को इस बात का पता चला कि कृतघ्न दीर्घराज के चुल्लणी रानी के साथ अनुचित सम्बन्ध हैं। अतः उन्होंने दोनों गैर वफादारों को समझाया, फिर भी उन्होंने अपनी बेवफाई न छोड़ी तो तीनों मित्रराजाओं ने दीर्घराजा की उपेक्षा करके उसे छोड़ दिया। आगे की कहानी लम्बी है। उससे यहाँ कोई प्रयोजन नहीं । कृतज्ञ मित्रों की मैत्री बढ़ती जाती है, घटती नहीं, क्योंकि वे कभी परस्पर द्रोह या कृतघ्नता नहीं करते। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बड़े उदार और दानी थे। उनकी असीम दानशीलता के कारण वे निर्धन हो गए। इसी निर्धनता के कारण वे पत्रों का जवाब नहीं दे पाते थे, क्योंकि उन पत्रों को बन्द करके भेजने के लिए लिफाफे चाहिए थे, वे उनके पास पैसे के अभाव में नहीं थे। अतः पत्र लिख-लिखकर वे मेज पर रख देते। एक दिन उनके
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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