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________________ २१२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ कुतः कृतघ्नस्य यशः, कुतां स्थानं, कुतः सुखम् ? अश्रद्धेयः कृतघ्नो हि, कृताने नास्ति निष्कृतिः।। "कृतघ्न को कहाँ से यश मिल सकता है ? कहाँ उसे स्थान और सुख मिल सकता है ? वह सबका अश्रद्धेय और निन्दापात्र बन जाता है, कृतघ्न की आत्मशुद्धि के लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है।" जो कृतज्ञ होता है, वह अपनी माता सिवाय दूसरी किसी महिला का स्तनपान करके भी उस दुग्धपान का बदला चुकाये काना नहीं रहता। वर्षों पहले 'कल्याण' में एक सच्ची घटना प्रकाशित हुई थी। नीरू नामक मुसलमान की पत्नी का देहान्त हो जाने पर उसके लड़के अहमद को पड़ोस में रहने वाली एक ग्वालिन ने अपना दूध पिलाकर बड़ा किया था। कुछ वर्षों बाद अहमद मथुरा के एक हॉस्पिटल में कंपाउडर हो गया था। संयोगवश उस ग्वालिन की छाती में अत्यन्त पीड़ा होने से वह अपने पति के साथ मथुरा के उसी हॉस्पीटल में इलाज कराने आई। डॉक्टर ने कहा- इसको खून चढ़ाना होगा। जिसका खून इसके खून से मेल खाए, वही दे सकता है। पालित पुत्र अहमद कंपाउडर ने अपना बिलकुल परिचा न देकर दो सौ रुपये लेकर खून दिया। वह बिलकुल स्वस्थ होकर अपने पति के सय ग्वालपाड़ा (आसाम) चली गई। कुछ ही दिनों बाद अहमद ने अपनी परमोपकारिणी माता के लिए ५०० रुपये भेजे। एक पत्र में अपना परिचय तथा यह धनराशि स्वीकार करने का आग्रहपूर्वक लिखा। अहमद के अनुरोध को ग्वालिन माता टाल न सकी। इस प्रकार दूध का बदला चुकाया। __ हाँ, तो कृतज्ञता से इन दुष्प्रतीकार्य : मृणों को उतारने का प्रयल करना चाहिए, कम से कम इन दुष्प्रतीकार्य ऋण वालों के प्रमते कृतघ्नता से बचना चाहिए। मित्र कौन ? वे कृतघ्न को क्यों छोड़ देते हैं ? महर्षि गौतम ने कृतघ्नजीवन को इसलिए निकृष्ट बताया है कि कृतघ्न को उसके मित्र छोड़ देते हैं। मित्र का मतलब यहाँ केवल दोस्त ही नहीं है: अपितु माता-पिता, हितैषीजन, उपकारी पुरुष, गुरुजन एवं विश्वस्त जन सभी उसके मित्र हैं। वे कृतघ्न व्यक्ति की कृतघ्नता देखकर उर छोड़ देते हैं, उसका साथ नहीं देते, उसके ऊपर संकट आया जानकर किनाराकसी व्तर लेते हैं। कृतघ्न आदमी के साथ हितैषी और उपकारी सज्जनों की मैत्री टिक नहीं सकती। क्योंकि मैत्री का तकाजा है कि अपने पर किसी ने जरा भी उपकार किया हो तो तुरंत उसका प्रत्युपकार करके उस उपकार का बदला चुका दो। अपने पर संकट के समय तो व्यक्ति दूसरों को अपना मित्र बनाकर उनसे चिकनी-चुपड़ी बातें करके कोई सहायता ले ले और जब उन पर कोई संकट आ पड़े तब दूर से ही किनाराकसी कर ले, वे आशा लगाकर प्रतीक्षा में बैठे ही रहें, लेकिन कृतघ्न व्यक्ति उसके उपकारों को भूलकर या याद होते हुए भी जानबूझकर आँख मिचौनी कर ले, तब झाला मैत्री कैसे रह सकती है ? एक कवि ने
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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