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आनन्द प्रवचन भाग ६
शील सहायक देव आकर उसकी प्रशंसा करते हुए कहने लगा- यद्यपि तुम्हारा शील खण्डित हो चुका, लेकिन सत्य तो खण्डित नहीं हुआ। तुम्हारी सत्य की ली हुई दृढ़ शरणनिष्ठा तथा सबके सामने अपनी गलती सत्यासत्य मान लेने की वृत्ति देखकर मैं प्रभावित हुआ और मन हा सारा प्रभाव बढ़ढ़या है।
सचमुच, सेठ की सत्यशरम की दृढ़निष्ठा ने उसक प्रभाव पुण्ण रखा । इसी प्रकार साधकजीवन में अगर सत्यनिष्ठा कायम रहे तो दूसरे दुर्गुण भी धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं।
सत्यशरण : विश्वसनीयता का कारण
कई बार सत्यशरणागत व्यक्ति भारी विपत्ति में फँस जाता है, लेकिन अगर उसकी सत्यनिष्ठा अन्त तक कायम रहती है तो वह विश्वासपात्र व्यक्ति बन जाता है। इसीलिए भक्तपरिज्ञा में स्पष्ट कहा है---
विसस्तणिज्जो माया व होई, पुजंधो गुरु व लोअस्स । सयणुव्व सच्चवाई, पुरिसो सस्स पियो होई । ।
सत्यवादी माता की तरह विश्वासपात्र होता है, गुरु की तरह लोगों का पूजनीय होता है तथा स्वजन की तरह वह सभी को प्रिय होता है।
ऐसे कई उदाहरण भारतीय इतिहास के पन्नों पर अंकित हैं।
है ।
एक दूसरे राज्य के सेनापति ने राजपूतों के किले को चारों ओर से घेरा हुआ था। राजपूतों का नायक रघुपतिसिंह भागकर कम में चला गया। उसे जीवित या मृत पकड़कर लाने वाले को इनाम की घोषणा की गई। अचानक रघुपतिसिंह को खबर मिली कि उसका पुत्र मरणासन्न है। अतः वह पुत्र को देखने की इच्छा से वन से लौटा और घेरा डालने वाली सेना के नायक से निवेशन किया "मेरा पुत्र मरणासन्न है, मुझे किले में जाने दीजिए।" सेनानानयक ने कहा- " अगर आप न लौटे तो ?" रघुपतिसिंह बोला - "राजपूत कभी झूठ नहीं बनता । "
वास्तव में सत्यवादी जो वचन कह देना है, उससे फिरता नहीं । बाल्मीकि रामायण में कहा है
नहि प्रतिज्ञां कुर्वन्ति, वितथां सत्यवादिनः । लक्षणं हि महत्वस्य प्रेग्रतेज्ञा-परिपालनम् । 1
सत्यवादी झूठी प्रतिज्ञा नहीं करते। प्रतिज्ञा का पालन ही महानता का लक्षण
इसपर किले में जाने दिया। वह पुत्र से मिलकर वापस सेनानायक के पास लौटा और कहा--"लो, मुझे पकड़ लो अब ।" उसे लेकर सेनानायक सेनापति के पास पहुँचा । रघुपतिसिंह की सत्यनिष्ठा एवं आत्मसमर्पण का विवरण सुनकर सेनापति ने कहा--"आप स्वतंत्र हैं जाइए! ऐसे सत्यनिष्ट सच्चे बीर को मारकर मैं अपने हाथ गंदे नहीं कर सकता।"