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________________ कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते २०६ सन्तुष्ट रहते हैं, वे उसे नित्य स्मरण रखते हैं।' "He enjoys much, who is thankful for little; a grateful mind is both a great and a happy mind." 'जो जरा-से उपकार के लिए कृतज्ञ रहता है, वह महान् प्रसन्नता का अनुभव करता है, क्योंकि कृतज्ञतापूर्ण मानस महान् उमर प्रसन्न मानस होता है।' मानव पर तीन के ऋण दुष्प्रतीकार्य जैसा कि मैंने पहले कहा था, यों तो प्राणिमात्र के उपकारों से मनुष्य उपकृत होता है और उसे उन उपकारों का बदला रकाना चाहिए। लेकिन जैनशास्त्र स्थानांग सूत्र में तीन विशेष उपकारियों के मानव पर बहुत बड़े और दुष्प्रतीकार्य (बड़ी कठनिता से उऋण हो सकें ऐसे) ऋण बताये हैं। वे इस प्रकार हैं--- "तिण्हं दुष्पडियारं समणाउसो ! तं जहा—अम्मापिउणो, मट्टिस्स, पम्मायरिस्स।" भगवान् ने कहा आयुष्मान् श्रमणो ! तीन का ऋण दुष्प्रतीकार्य है, यानी उनसे उऋण होना दुःशक्य है—(१) माता-पिता का (२) भर्ता--पालन-पोषण करने या आजीविका देने वाले का एवं (३) धर्माचार्य का। पहला ऋण सन्तान पर माता-पिता का है, जो उसका बड़े कष्ट से पालन पोषण करके उस पर महान् उपकार करते हैं। श्रवणकुमार की तरह माता-पिता की आजीवन सेवा करने पर भी उनके ऋण से उऋण होना कृष्कर होता है। दूसरा ऋण उस स्वामी या सेठ का है, जिसने अपने मुनीम-गुमाश्ते या कचारी को आजीविका देकर पाल-पोसकर बड़ा किया, योग्य सम्पन्न और कार्यदक्ष बनाया। और तीसरा दुष्प्रतीकार्य ऋण है-धर्माचार्य या गुरुजन का, जो व्यक्ति को ज्ञान, दर्शन, और चारित्र से सम्पन्न करके उसका जीवन-निर्माण करते हैं। अधर्म से बचाकर धार्मिक पथ पर प्रेरित करते हैं। वह साधक उनकी श्रद्धाभक्ति एवं आदरपूर्वक सेवा करता हुआ भी सहसा उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता। निष्कर्ष यह है कि इन तीनों के असंख्य उपकार मनुष्य पर हैं। उन उपकारों का बदला चुकाना बड़ा ही कठिन होता है। राजस्थान का प्रसिद्ध सटोरिया श्री गोन्दिराम सेक्सरिया जब पहले पहल बम्बई गया तो उसे एक धर्मशाला के ट्रस्टी ने पाठ आने रोज पर रख लिया, किन्तु लिखना-पढ़ना न आने के कारण आठ आने कर विदा किया, किन्तु उसकी दयनीय दशा पर ध्यान देकर सेठ ने उसे एक रुपया द्रिया। इस रुपये से उसने दस दिन काम चलाया। ग्यारवें दिन सट्टा बाजार में एक सेठ के यहाँ कागज-पत्र पहुँचाने के काम पर रह गया। कुछ ही वर्षों में वह बहुत बड़ा सटोरिया बन गया और सफल व्यापारी भी। एक बार किसी सार्वजनिक संस्था के लिए सान्त्रयता लेने एक युवक आया, संस्था का १ देखिए वाल्मीकि रामायण में न स्मरत्यपकाराणां शतम्प्यात्मवत्तया । कथञ्चिदुपकारेण कृतेनैकेन तुष्यति ।।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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