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________________ कृतघ्न नर को मित्रं छोड़ते २०७ का अन्त होने में अब एक सप्ताह से अधिक समय नहीं रह गया है।" मजदूर भारी मन से यह सुनकर यह कहते हुए चले गए— "हमने मिल का नमक खाया है, हम अपना सर्वस्व देकर भी मिल को बंद होने से बचाएँगे।" दूसरे दिन जब मजदूर आए तो अपने-अपने काम पर जाने की अपेक्षा वे मालिक के दफ्तर पर लाइन से खड़े हो गए। उनमें से प्रत्येक एक-एक करके दफ्तर में घुसा और अपनी-अपनी पासबुक के साथ चुकती पावती की रसीद मालिक की मेज पर रखता चला गया। प्रत्येक ने कहा - "हमारे पास जो भी जमा पूँजी है, उम्र आप निकाल लें और घाटे की पूर्ति में लगा दें; और मिल को चालू रखने का प्रयत्न करें। यदि मिल और आप डूबने जा रहे हैं तो हम कम से कम अपनी जमापूँजी तो साथ में डुबा ही सकते हैं।" उन हजारों पासबुकों को लेकर मालिक बैंक में गया। यद्योपे बैंक आगे से नया उधार देने से स्पष्ट इंकार कर चुका था; तथापि इतनी सारी पासष्टकों को देखकर बैंक मैनेजर अचकचाए और कुछ सोचने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि 'जिस मिल के कर्मचारियों और मालिक में इनकी घनिष्ठ आत्मीयता और परसार कृतज्ञता का भाव है, उसका भविष्य उज्ज्वल है। ये लोग बुरे दिनों में भी इसी प्रकार मिल-जुलकर निपट लेंगे ।' अतः उन्होंने मिल को फिर से उधार देने का फैसला कर लिया। फलतः मिल चालू रही और संकट के दिन मजदूरों की कृतज्ञता के कारण ठज्ञ गए। इसलिए जो बाजी कृतघ्नता से बिगड़ सकती थी, वह मजदूरों की कृतज्ञता के कारण एक दफे सुधर गई । कहाँ कृतज्ञता दिखाई जाए ? कहाँ कृतघ्नता से बचा जाए ? अब प्रश्न होता है कि कृतज्ञता कहाँ-कहाँ दिखलाई जाए और कहाँ-कहाँ कृतघ्नता न दिखाई जाए ? यानी कृतज्ञता के कौन-कौन से क्षेत्र हैं और कृतघ्नता से बचने के कौन-कौन से ? सच बात यह है कि जितने क्षेत्र कृतज्ञता के हैं, उतने ही क्षेत्र कृतघ्नता के हो सकते हैं, क्योंकि ये दोनों परसपुर विरोधीभाव हैं। इसलिए जिन क्षेत्रों में कृतज्ञता प्रकट करनी है, उन्हीं क्षेत्रों में कृतानता से बचना है। यों तो मनुष्य को जन्म से लेकर मृत्यु तक जितने और जिन-जिन प्राणियों से वास्ता पड़ता है, जिन-जिन प्राणियों से सहयोग लेना पड़ता है, या जिन-जिन के उपकार से वह उपकृत होता है, उन सबके प्रति कृतज्ञ होना, कृतज्ञता प्रगट करना अत्यावश्यक है। मैंने एक दिन कहा था कि धर्माचरण करने वाले साधक के लिए ५ आलम्बन स्थान होते हैं— 9 षट्काय, गण (संघ), राजा (शासन), गृहपति और शरीर । ' "धम्मं चरमाणस्स पंच निस्साठाणा पण्णत्ता, तंजझ उक्काए, गणे, राया, गिहवई, सरीरं । " -स्थानांगसूत्र, स्थान ५ सू०, ४४७
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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