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________________ २०४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ महावीर से कुछ भी नवीन ज्ञान उपार्जित न कर सका, उसका विकास वहीं ठप्प हो गया। जिसका अन्तिम समय में उसे अवश्य पश्चाताप हुआ, उसने भगवान महावीर के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करके आत्मालोचन किया और अपना जीवन सुधार लिया। निष्कर्ष यह है कि कृतघ्न व्यक्ति सहसा उसका उपकार करने को तैयार नहीं होता। एक पाश्चात्य विद्वान् टिमोथी डेक्सटर (Timothy Dexter) के शब्दों में कृतन के प्रति जनता की भावना का चित्रण देखिए - "An ungrateful man tike a hoginder a tree eating acorns, but never looking up to see where they come from." "कृतन मनुष्य एक सुअर के समान है, की एक पेड़ के नीचे फल खाता रहता है, लेकिन कभी ऊपर मुँह उठाकर नहीं देखता बिल ये फल कहाँ से आते हैं ?" कृतन एक प्रकार से मुफ्तखोर है, जो बिना ही कुछ बदला चुकाये मुफ्त में दूसरों के उपकार पर गुलछरें उड़ाता है। इसीलिए वह दूसरों की सहानुभूति खो देता है। अकृतज्ञ पुरुष के प्रति किसी के दिल में प्रेम नहीं उमड़ता। संकट अथवा आफत के समय वह जब दूसरों के सामने सहाका के लिए हाथ फैलाता है, तब उसे प्रायः कहीं से भी सहायता नहीं मिलती। कृतन की सबसे बड़ी हानि यह है कि वह अपनी संतान में भी कृतघ्नता के बीज बो देता है। उसकी संतान उसके खुद के प्रोते भी कभी कृतज्ञता के दो शब्द, या धन्यवाद प्रगट नहीं करती। वह भी कृतघ्नता के सांचे में ढलकर तैयार होती है। कृतघ्न बहुत चाहता है कि मेरी संतान मेरे प्रति एहसानमंद हो, वफादार हो, नमक हलाल हो, तथा कृतज्ञता प्रगट करे, किन्तु उसे कभी कृतज्ञता के मधुर शब्द सुनने को नहीं मिलते। फिर कृतनता के सांचे में ढ़ली 1 हुई वह संतति दूसरों के साथ भी कृतघ्नता का व्यवहार करती है, सबकी सहानुभूत्रि खो बैठती है। इसलिए कृतघ्न बनना घाटे का सौदा है. कृतज्ञ बनकर मनुष्य जितना कुछ धन, समय, श्रम व्यय करता है, उससे कई गुना तो वह पहले ही पा लेता है, और बाद में भी पानी का सिलसिला जारी रहता है। कृतन धनकर तो व्यक्ति अपने सिर पर ऋण चढ़ा लेता है, जबकि कृतज्ञ बनकर वह उस ऋणको सहर्ष चुका देता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक व्यक्ति की कृतघ्नता से सारे राष्ट्र को हानि पहुँचती है,अथवा एक व्यक्ति अगर अपने गांव के द्वारा प्राप्त उपकारों का स्मरण करके संकट के समय गांव को सहायता नहीं पहुंचाता है तो वह अपना जीवन तो खतरे में डालता ही है, सारे गांव के जीवन को खतरे में डाल देता है, जिसे वह थोड़ा सा त्याग करके बचा सकता था और गांव के ऋण से कुछ अंशों से मुक्त हो सकता था, साथ ही गांव के लोगों की सद्भावना जीत सकता था। भारत में अंग्रेजी राज्य की जड़ें ईस्ट इंडिया कम्पनी के स्थापित होने से ही जमने लगी थीं। किन्तु भारत के कुछ गद्दार और कृाध्न ऐसे लोग निकले, जिन्होंने अपने
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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