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कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते
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वास्तव में कृतघ्न को देखकर परोपकारी व्यक्ति का दूसरों के प्रति भी परोपकार करने का उत्साह नष्ट हो जाता है। वह सन्धने लगता है कि इसका मैंने उपकार किया, लेकिन इसने मेरा अहसान मानने के बदले नन्ध बनकर कृतघ्नता धारण कर ली, सम्भव है, दूसरे भी ऐसे ही निकलें, क्यों व्यर्थ ही अपका समय, श्रम और शक्ति व्यय करूँ। सचमुच ऐसे कृतन परोपकार-पथ के डाकू हैं, जिनस्त कारण सब पर से विश्वास उठ जाता है।
कृतन बन जाने से दूसरी हानि यहा है कि उस कृतघ्न का चेप दूसरे को लगता है। उसकी उक्त कृतघ्नता देखकर वह अकसर यह सोचने लगता है कि जब यह कृतज्ञता नहीं दिखलाता तो मुझे उसका रुपकार क्यों करना चाहिए? मुझे उसे कुछ क्यों देना चाहिए ? वर्तमान युग में समाज में प्रायः इसी प्रकार की प्रणाली चल रही है, लोग दान या परोपकार के बदले में सर्वप्रयम धन्यवाद ही नहीं, सम्मान, अभिनन्दन, प्रतिष्ठा और यश कीर्ति भी चाहते हैं।
वास्तव में ऐसा करना सौदेबाजी है और इससे व्यक्ति में दूसरों के प्रति मैत्री और बन्धुत्व की भावना का ह्रास होता है। प्रसिद्धि लेखक सेनेका (Seneca) तो इस बारे में स्पष्ट कहता है
"If is another's fault if he the ungrateful, but it is mine if ido not give. To find one thankful main I will oblige a great many that are not so."
'यह दूसरे की गलती है कि यह आकृतज्ञ (कृतघ्न) होत. है, किन्तु यह तो मेरी गलती है कि मैं दूसरे को नहीं देता, इसका मतलब है, एक कृतज्ञ मनुष्य को पाने के लिए मैं उन बहुत-से लोगों को बाध्य कर दूंगा, जो वैसे नहीं हैं।'
कृतन बन जाने पर मनुष्य सामाफिक या धार्मिक नहीं रहता, क्योंकि समाज और धर्म के प्रति उसके मन में घृणा पैदा हो जाती है। वह अपने समाज, धर्म और राष्ट्र के द्वारा किये गये उपकारों को भुलाना है और इनके प्रति द्रोह करने लगता है, इनके प्रति विद्रोही एवं प्रतिक्रियावादी बन चाता है। इससे उसकी व्यावहारिक क्षति तो है ही, आध्यात्मिक क्षति भी कम नहीं होती। उसकी आत्मा में उदारता, परमार्थ, मैत्री, विश्वबन्धुता, आत्मौपम्य, एवं आत्मा के अहिंसा, सत्य आदि सद्गुणों का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
कृतघ्न बनने से तीसरी क्षति यह है कि वह अभिमान में आकर अपने आपको ही सब कुछ तथा सर्वज्ञानी समझ बैठता है। गोशालक में जब कृतघ्नता आ गई थी, तब वह भगवान महावीर जैसे परमोपकारी द्वारा किए गए परोपकारों को भूल गया, उलटे उन पर ही तेजोलेश्या छोड़कर उनता अपकार करने पर तुल गया, उनके दो शिष्यों को उसने तेजोलेश्या के प्रयोग से गार डाला था। इतना ही नहीं, अहंकार में
आकर अपने आपको सर्वज्ञ और तीर्थंकर कहना और श्रमण महावीर की जगह-जगह निन्दा करना शुरू कर दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि गोशालक भगवान