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आनन्द प्रवचन : भाग
भुक्ता मृणालपटली गवता निपीतान्यम्बूनि यत्र नलिनानिग निषेवितानि। रे राजहंस ! वद ताय सरोवरस्य,
कृत्येन केन भवितासि कृतोपकारः ? एक राजहंस से कवि कहता है--" राजहंस ! जिस सरोवर में रहकर तूने उसका पानी पीया था, उसके कमलों तथा कमन की इंडियों का सेवन किया था, वता, कौन-सा कार्य करके उस सरोवर के उपकार से उऋण होगा ?"
वास्तव में कृतज्ञ बनने की कितनी अद्भुत प्रेरणा है। कृतघ्न बनने से क्या हानि, कृतज्ञ बनने से क्या लाभ ?
इन सब कारण कलापों को देखते हुए मनुष्य को कृतज्ञ बनने की प्रेरणा मिलती है, किन्तु सवाल यह उठता है कि मनुष्य अगा कृतघ्र बना रहे या कृतघ्नता ही प्रकट करता रहे तो क्या हानि है ? बल्कि कृतज्ञता प्रकट करने के लिए जो समय, शक्ति और धन खर्च करना पड़ता है, वह बच ही जाता है।
परन्तु यह तर्क निष्प्राण है। कृतघ्न व रहने से दिखता है कि समय की बचत हो जाएगी, धन बचेगा, शक्ति का व्यय नहीं करना होगा, किन्तु यह भ्रान्ति है। दीर्घकाल की जीवन-यात्रा में कई ऐसे प्रसंग उपस्थित हो जाते हैं, जबकि दूसरों के उपकार लेकर उपकृत होना अनिवार्य हो जाता है। यों तो जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त असंख्य प्राणियों का उपकार हम जाने-अनजाने ले रहे हैं, भले ही वे बिना किसी प्रत्युपकार की आशा से हमारे प्रति उपकार करते हों, चाहे वे हमें अपनी सेवाएं फ्री देते हों, बदले में कुछ न लेते हों, परन्तु हमें तो उन प्राणियों या मानवों के उपकारों का बदला अवश्य चुकाना चाहिए, अन्यथा वह ऋण हम पर चढ़ा रहेगा, वह हमारी नमकहरामी होगी।
__कृतघ्न बनने से सबसे पहली हानि राह है कि उस कृतघ्न के जीवन में तो परोपकार की वृत्ति रुक ही जाती हैं, उसके कृतघ्न बन जाने से लोग परोपकार करते हैं, वे भी यह सोचकर रुक जाते हैं कि पता नहीं, जिनका हम उपकार करते हैं, वे हमारे प्रति कृतज्ञता प्रगट करेंगे या नहीं? इस प्रकार परोपकार की परम्परा समाप्त हो जाती है। समाज में हर एक व्यक्ति जरूरतमद कृतज्ञ सञ्जन को भी दुख पीड़ित देखकर शंका की दृष्टि से देखने लगता है। एक पाश्चात्य विचारक पब्लियस सीरस (Publius Syrus) भी इन्हीं विचारों का समर्थन करता -
"One ungrateful man does ar injury to all who stand in need of aid."
"एक कृतघ्न व्यक्ति उन सबको हानि पहुंचाता है, जो किसी सहायता की आशा में खड़े हैं।"