SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते २०१ हूँ। तेरी वृद्ध दादी के मेरे पर बहुत उपकार हैं, इसलिए मैं तुम्हें जिंदा छोड़ देता हूं। इस झाड़ी के दाहिनी ओर की पगडंडी से चला जा।" इस प्रकार एक क्रूरता की प्रतिमूर्ति नाजी अफसर ने भी एक कैदी की दादी के द्वारा किये गये उपकारों को स्मरण करके कृतज्ञता का परिचय दिया, तब क्या समझदार मानव को कृतज्ञता के बदले कृतउनता का परिचय देना चाहिए ? हर्गिज नहीं। मिट्टी वनस्पति आदि भी कृतघ्न नहीं। बन्धुओ ! और तो और, वनस्पति, पृथ्वी, जल आदि एकेन्द्रिय भी अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं। ___ गुलिश्ता बोस्तां में शेखशादी लिखते हैं:-"एक बार एक मिट्टी का ढेला हाथ मे लिया तो उसमें से बढ़िया महक उठ रही थी। तब मैंने उस मिट्टी के ढेले से पूछा तुझमें इतनी सुगंध कहाँ से आई ?" उसने जहा--"यह सुगन्ध मेरी अपनी नहीं है। मैं गुलाब की क्यारी में रही हूँ, उसी ने मुझे भुगन्धि देकर मेरे पर उपकार किया है।" इसी का नाम है. कृतज्ञता। मिट्टी ने अपनी सुगन्ध न बताकर गुलाब की सुगन्ध बताई। उपकारी के इस प्रकार गुणगान करना, उसके उपकार को भुनाया या छिपाया नहीं, बल्कि समय आने पर उस पर उपकार का बदला चुकाना, यही कृतज्ञता का लक्षण है। वनस्पति के द्वारा प्रत्युपकार की कथा' भी सुनिये। ये सब पेड़, पौधे, फल, फूल आदि मनुष्यों द्वारा पानी सींचे जाने, खाद हिये जाने, बीज बोये जाने तथा रखवाली किये जाने के कारण अपने पर कृत उपकार का बदला अपनी छाया, फल, फूल आदि देकर चुकाते हैं। देखिये अभिज्ञान शाकुन्तल का नमूना प्रथमवयसि पीतं तोयमल्पं स्मरन्तः, शिरसि निहितभारा नारिकेला नराणाम् । उदकममृततुल्यं दघुराजीवनान्तम्, न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति । बचपन में जब छोटा-सा पौधा था, ता पिये हुए थोड़े से पानी का स्मरण करते हुए नारियल का पेड़ जीवनभर अपने सिर पर फलों का बोझ धारण किए रहते हैं, और मनुष्यों को अमृत तुल्य जल देते रहते हैं, क्योंकि सज्जन अपने किये हुए उपकार को कभी नहीं भूलते। जब मिट्टी बनस्पति, हवा, आकाश, जल आदि मनुष्य पर अगणित उपकार करते रहते हैं, तब मनुष्य ही क्यों कृतघ्न बाकर उपकार करने से विमुख होता रहता है ? यही कारण है कि पण्डितराज जगन्ना एक अन्योक्ति द्वारा कृतज्ञ बनने और कृतघ्नता छोड़ने की प्रेरणा देते हैं ----
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy