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आनन्द प्रवचन भाग ६
सत्य, दया, क्षमा, सेवा, नम्रता, शील, अचौर्य आदि कोई भी गुण विश्वसनीय नहीं रहता। लोग उसके गुणों के प्रति भी सन्देह वतरने लगते हैं कि न जाने कब यह आदमी बदल जाए, क्योंकि इसमें कृतघ्नता का भारी 1 दुर्गुण है। सर फिलिप सिडनी (Sir P. Sidney) ने सच ही कहा है
"Ungratefulness is the very poison of manhood."
"मानवता का तीव्र जहर है। भारतीय संस्कृति में कृतघ्न को बहुत ही नीच और निकृष्ट व्यक्ति माना गया है। बाल्मीकि रामायण में कृतघ्न व्यक्ति की शुद्धि के लिए कोई प्रायश्चित नहीं बतलाया है-
गोध्ने चैव सुरापे च चौरे भग्नव्रते तथा । निष्कृतिर्विहिता सद्भिः बृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः ।
गोवधकर्त्ता, शराबी, चोर और व्रतभ्रष्ट इन सब के लिए तो सत्पुरुषों ने प्रायश्चित्त का विधान किया है, लेकिन कृतध्व की शुद्धि के लिए कोई प्रायश्चित्त विधि नहीं बताई।
सचमुच, कृतघ्नता इतना बड़ा पाप है कि वह सारी पवित्रता को नष्ट करके जीवन को कालिमा से आच्छादित कर देते है। कृतघ्नता व्यक्ति के हृदय में निहित क्रूरता और माया को सूचित कर देती है । वृत्तघ्न व्यक्ति की निकृष्टता एवं अधमता को सूचित करने वाला एक रोचक दृष्टान्त मुझे याद आ रहा है
एक ऋषि गंगा स्नान कर रहे थे। सामने से एक चाण्डालिनी सिर पर एक टोकरी से मरा हुआ कुत्ता रखे हुए तथा एक हाथ में गंदगी से भरा हुआ खप्पर लिए आ रही थी । चाण्डालिनी के हाथ रक्त से कने हुए थे, फिर भी वह एक हाथ से रास्ते पर पानी छींटती चल रही थी। ऋषि का उसकी यह चेटा देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने उससे पूछ ही लिया --
कर खप्पर, सिर श्वान, लहू ज खरड़े हत्थ । छिड़कत मग चंडालिनी !! ऋषि पूछत है वत्त।
अर्थात् - "तेरे हाथ में खप्पर, सिर पर मरा हुआ कुत्ता, खून से लथपथ हाथ फिर भी चाण्डालिनी ! तू रास्ते में पानी छोड़कर मार्ग शुद्धि कर रही है, क्या तुझसे भी कोई अधिक अपवित्र है, जो तू इस प्रकार शुद्धि कर रही है ?”
ऋषि का प्रश्न सुनते ही विज्ञ चाण्डालेनी ने बड़ा मार्मिक उत्तर दिया
तुम तो ऋषि भोले भए नहीं जानत हो भेव ।
कृतघ्न नर की चरणरऊ, छिटकत हूँ गुरुदेव ।
गुरुदेव ! क्या बताऊं ? आप ऋ तो बन गए, पर रहस्य हाथ नहीं लगा । आप दुनियादारी के मामले में भोले हैं। मैं चाण्डालिनी हूँ, पर मेरा जो कर्त्तव्य है, वह करती हूं, इसलिए अपवित्र नहीं हूँ। परन्तु इस रास्ते में अभी एक कृतघ्न मनुष्य गया है, वह अत्यन्त अपवित्र है। उसके पैरों में लगकर गिरे हुए रजकण कहीं मेरे न लग