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________________ कृतघ्र नर को मित्र छोड़ते १६५ है, इसलिए उसकी दृष्टि में तमाम दुनिया स्वार्थी और लोभी प्रतीत होती है। वास्तव में कृतघ्न दूसरों के गुण ग्रहण नहीं करता, उसकी दृष्टि में दूसरों के दोष ही नजर आते हैं। वह दूसरों के द्वारा कृत उपकार्य को स्मृति से बिलकुल ओझल कर देता है। ऐसा करके वह अपने सिर पर उपकारों धौर एहसानों का बहुत बड़ा कर्ज या ऋण चढ़ा लेता है। इस जन्म में वह कृतघ्नता के कारण उस ऋण को नहीं चुका पाता, तो अगले जन्मों में तो उसे चुकाना ही पड़ता है , चाहे वह समझ-बूझकर हंसते-हंसते चुकाए, चाहे किसी के दबाव में रो-रोकर चुकाए। एक पेड़ को माली ने अपने श्रम से सींच सचिकर बड़ा किया था। जब वह बड़ा हुआ तो उसमें सुगन्धित फूल आए, वह फलों से लदकर और पत्तों और शाखाओं के भार से बहुत उन्नत हो गया। अब भौरे आकर उस पर गुंजार करने लगे, पक्षी आकर उस पर चहचहाने और बसेरा करने लगे। पेड़ को अपनी समृद्धि का गर्व हो गया। वह अपने पुराने उपकारी माली को भूल गया। इसी प्रसंग को लेकर कवि दीनदयाल गिरि एक अन्योक्ति द्वारा कृतघ्नों को प्रेरणा देते हुए कहते हैं वा दिन की सुषि तोहि को, भूल गई कित साखि ? बागवान गहि घूर तें, ज्यायो गोदी राखि । ल्यायो गोदी राखि, सींचि गाल्यो निज कर तें। भूलि रह्यो अब फूलि, पार आदर मधुकर तें। बरनै दीनदयाल, बड़ाई है, सब तिनकी । तू झूमे फलभार, भूलि सुर्षि को वा दिन की। कवि ने कितने गहन सत्य-तथ्य को अन्योक्ति द्वारा उजागर कर दिया है। वास्तव में जिप्स में कृतघ्नता आ जाती है, वह चाहे कितना ही सम्पन्न क्यों न हो जाए, चाहे उसमें कुछ गुण भी क्यों न हों, वह लोगों की दृष्टि में अधम, निकृष्ट और पापी समझा जाता है, एक कृतघ्रता ही उसके सभी। गुणों पर पानी फिरा देती है। एक पाश्चात्य विचारक ब्रूक (Brooke) के शब्दों में देखिए "If there be a crime of deeper dye than all the guilty train of human vices, it is ingratitude." 'मानवीय बुराइयों के तमाम अपराधी परिचरों के बजाय संसार में अगर कोई गहरे रंग का अपराध है तो वह है-अकृतज्ञता-कृतघ्नता।' जब मानव-जीवन में कृतघ्नता आती है तो उसमें अहंकार, झूठ, क्रोध, माया (कपट), एवं स्वार्थ आदि सभी दोष धीरे-धीरे प्रविष्ट हो जाते हैं, फिर उसकी जगत् के प्राणियों के प्रति ही नहीं, परमात्मा के प्रति भी खद्धा खत्म हो जाती है। कृतघ्नता एक प्रकार का तीव्र विष है, जो अमृत-सम सभी गुणों को जहरीला बना देता है। उसके रहते कोई भी गुण विश्वसनीय नहीं रहता। कृतघ्न व्यक्ति में
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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