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________________ १६४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ प्रति धन्यवाद सूचक शब्दों में भी कृतज्ञता प्रगटन करना, विनय-नम्रता भी न दिखाना, और न ही उपकारी का किसी प्रकार का गुणगान करना, और न उपकारी का प्रत्युपकार (समय आने पर) करना कृतघ्नता फहलाती है। ऐसी कृतघ्नता की वृत्ति जिसमें हो, वह कृतघ्न कहलाता है। गिरिधर प्लविराय ने एक कुण्डलिया में कृतघ्न के जीवन का परिचय संक्षेप में दे दिया है---- कृतघन कबहुं न मानहीं, कोटि करे जो कोय । सर्वस आगे राखिये, तऊ न अनपो होय । तऊ न अपनो होय, भले की भली न माने । काम काढ़ि चुप रहै, फेरि तिहि नहिं पहिचाने। कह गिरिधर कविराय, रहत नित ही निर्भय मन । मित्र शत्रु सब एक, दाम के लालच कृतघन । कृतघ्न व्यक्ति हृदय का इतना कठोर होता है कि दूसरा व्यक्ति उस पर दुख या विपत्ति पड़ने पर चाहे करोड़ों उपकार कर दे, चाहे अपना सर्वस्व तन, मन और धन लगा दे, तो भी वह उस उपकारी का अपना नहीं होता, वह सदैव दूसरों को स्वार्थी, मतलबी, अपने किसी प्रयोजन से सहायता देनि वाला, चापलूस, कपटी, अपना काम बनाने के लिए मीठा बोलने वाले या अपने में केसी दुर्गुण या कमजोरी के कारण उसे सहायता देने वाला मानता है। वह किसी भी उपकारी को उपकारी नहीं कहेगा, न मानेगा। कदाचित् कभी किसी कारणवश किमो विपत्ति में फंस गया तो किसी समर्थ व्यक्ति से अपना काम निकलवा लेगा, किन्तु बाद में तुरंत आंखें फेर लेगा, तर्ज बदल देगा, कदाचित् उपकारी पुरुष घर पर आ गया या रास्ते में कहीं मिल गया तो भी वह उसे नहीं पहिचानने का डौल करेगा। कृतधो पुरुष जब स्वयं समर्थ, सम्पन्न और सशक्त हो जाता है, तब वह अपनी पहले बली स्थिति में सहायता करने वाले का स्मरण या चिन्तन नहीं करता। कदाचित् किमी प्रसंग पर वह किसी मतलब से याद करता है या कोई उसे याद दिला भी देता है तो वह उद्दण्डतापूर्वक कह देता है.---"अजी ! जिस समय हम दुःख की भट्टी में तप रहे थे, उस समय सभी यार-दोस्त, स्वजन-परिजन सुख-शय्या पर पड़े गुलछरें उड़ा रहे थे, किसी ने भी हमें नहीं पूछा। हम तो अपने पुरुषार्थ और भाग्यबल पर आगे पढ़े हैं। हमारी तकदीर तेज न होती तो कौन हमें आगे बढ़ा सकता था ? आज हमारे पास दो पैसे हो गए हैं, समाज में हमारी इज्जत बढ़ी है। कई सभा-सोसाइटियों में उमा गद भी मिल गया है, तब सब लोग पूछते हैं। 'उम समय मुझे कौन पूछता था ?" इस प्रकार अपने उपकारी माता-पिता, मित्र, स्वजन, गुरुजन आदि सबको धता बताकर कृतघ्न अपने अहंकार के गजराज पर चढ़कर छाती फुलाए बेधड़क घूमता है, उसके लिए शत्रु और मित्र, दुर्जन और सञ्जन, म्बन और परजन सभी एक सरीखे हैं। वह स्वार्थ और लोभ का चश्मा चढ़ाए रहता
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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