SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१. कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते धर्म प्रेमी बन्धुओ! आज मैं आपके समक्ष एक ऐसे जीवन की चर्चा करना चाहता हूं, जो अपने आप में तो त्याज्य है ही, परन्तु ऐसा जीवन जाने वाले व्यक्ति को उसके हितैषी छोड़ देते हैं। उसके साथ रहना नहीं चाहते, न उसके साथ कोई लेन-देन का व्यवहार या सहकार करना चाहते हैं। ऐसा निकृष्ट एवं अधम जीवन है—कृतघ्न जीवन । गौतम कुलक का यह सत्ताइसवां जीवनसूत्र है, जिसमें नहर्षि गौतम ने बताया है-- 'चयंति मित्ताणि रं कवग्धं' 'कृतघ्न मनुष्य को मित्र-हितैषीजन छोड़ देते हैं।' कृतघ्न कौन और कैसे ? आपके मन-मस्तिष्क में यह प्रश्न उठता होगा कि कृतघ्न किसे कहते हैं ? और मनुष्य कृतघ्न किन कारणों से हो जाता है ? तृतघ्न की वास्तविक पहिचान क्या है ? संस्कृत व्याकरण के अनुसार कृतन का अर्थ होता है 'कृतमुपकारं हन्तीति कृतघ्नः' । "जो अपने पर दूसरों के द्वारा किये हुए उपकार का हनन कर देता है, वह कृतघ्न है 1' साँप के विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह दूध पिलाने वाले अपने उपकारी को काटने की चेष्टा करता है, इसी प्रकार पुष्ट कृतघ्न उपकारी के द्वारा किये हुए उपकार को भूलकर उसी की हानि करने की संष्टा करता है।' सांप तो कदाचित् उपकारी को पहचान कर उसका प्रत्युपकार भी कर देता है, किन्तु कृतघ्न मनुष्य तो सांप से भी बढ़कर निष्कृष्ट होता है। किसी के द्वारा किये गए उपकार को भूल जाना, उपकारी का उपका न मानना, धन्यवाद देकर उपकारी के १. देखिए सुभाषितरल भाण्डागार में कृतघ्न का लक्षणk कृतमपि महोपकार पय इव पीत्वा निराकर प्रत्युत हन्तु यतते काकोवरसोदरः खलो जाति।।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy