________________
१२
आनन्द प्रवचन भाग ६
" सत्ये नास्ति भयं किंीवेत्”
-सत्य के होने पर किंचित् भी भय नहीं रहता ।
जयपुर के पास घोड़ीग्राम का घाटम नामक मीना अपना परम्परागत चोरी का धंधा करता था । वह कभी-कभी एक महात्मा के पास सत्संग करने जाया करता था । एक दिन महात्मा ने घाटम से कहा- "भाई ! तू चोरी करना छोड़ दे।" घाटम ने कहा- "चोरी ही मेरी आजीविका है। इसे छोड़ दूँ तो परिवार का पालन कैसे करूंगा। और कोई आज्ञा दें । "
महात्मा ने कहा- अगर चोरी करना नही छोड़ सकता तो न सही, तुझे चार नियम बताता हूं, उनका पालन अवश्य करना
(१) सदा सत्य बोलना,
(२) संत सेवा करना,
(३) प्रत्येक खाद्य पदार्थ भगवदर्पण करके खाना,
(४) भगवान की आरती देखना ।
सरलहृदय घाटम ने चारों नियम ले लिए। एक बार भगवान का उत्सव था । गुरुजी बहुत दूर थे। उन्होंने घाटम को इस उत्सव में शामिल होने के लिए बुलाया । घाटन ने सोचा समय बहुत कम है, स्थान अति दृ है । अतः उसने राजा के घुड़साल से एक घोड़ा चुराया और हवा हो गया। पहरेदारों ने पूछा तो उसने अपने को चोर बताया था। रास्ते में संध्या हो जाने से घाटम एक मन्दिर में ठहर गया। बाहर घोड़ा बाँध दिया और आरती करने लगा। उधर जब घोड़ के चुराने का पता लगा तो राजा के घुड़सवार पदचिन्ह देखते हुए वहाँ पहुँच गये। पर उन्हें वह घोड़ा भ्रम से या भगवान की माझा से श्वेत रंग का दिखाई देता था । जब घाटम घोड़े पर चढ़ने लगा तो उन्हें आश्चर्यचकित देखकर कहा - "घबराओ मत, मैं वही चोर हूं, घोड़ा भी वही हैं। मुझे गुरुजी के यहाँ महोत्सव में पहुँचना है। तुम चाहो तो चलो मेरे साथ। मैं वहां से लौटकर राजा के पास चलूँगा।” सिपाहियों ने मान लिया। महोत्सव से लौटकर घाटम सीधा राजा के पास पहुँचा। राजा के पूछने पर सारी घटना सच-सच कह दी । राजा ने चकित होकर सत्यनिष्ठ घाटम के चरणों में नमन किया। फिर उसे बहुत-सा धन देना चाहा, लेकिन उसने लेने से साफ इन्कार कर दिया। सिर्फ एक घोड़ा गुरुजी की सेवा में जाने के लिए स्वीकारा। तब से घाटम में चोरी करने का त्याग कर दिया। यह है, सत्यशरणागत व्यक्ति की निर्भयता और अन्य दुर्गुण के छूट जाने का ज्वलन्त उदाहरण !
सत्य की शरण में जाने से आध्यात्मिक लाभ
सत्य को परमात्मा माना गया है, इसलिए जिसके हृदय में सत्य भगवान विराजमान हैं, उसकी प्रत्येक बाह्य और आभ्यन्तर क्रिया सत्य से प्रेरित एवं संचालित होती है। सत्यशरण ग्रहणकर्ता व्यक्ति के भीतर सध्य केरूप में जो परमात्मा अन्तर्यामी