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प्रत्यनिष्ट पाता है श्री को :२
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तो उसे प्रकाश से अपना शरीर और सत्य से अपनी आत्मा को धारण करना पड़ेगा।"
सत्य को जब भगवान कहा गया है तो जिस हृदय में सत्यरूप भगवान विराजमान हो गए वह जगत् का मालिक एवं शहंशाह बन सकेगा, क्योंकि फिर उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि शुण रहेंगे नहीं और इस प्रकार शुद्ध, निष्कलंक, निर्विकार, निर्मल आत्मश्री यहाँ जगमगाने लगेगी, जिसके प्रकाश में व्यक्ति अपने हिताहित, कर्तव्याकर्तव्य को देख सकेगा। अतः सत्यनिष्ठ आत्मोन्नति करने वाले सारे ही सद्गुणों-विमय, नम्रता, अहिंसा, अचोर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहवृत्ति, तप, क्षमा, दया आदि की आधारशिला बनेगी। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि सत्य में स्थित होने से आत्मा समस्त गुणरूपी कलाओं से खिल उठेगी। सत्यनिष्ठ व्यक्ति अपने स्वरूप में स्थिर होकर गुणरूप कलाओं से खिल उठेगी । सत्यनिष्ठ व्यक्ति अपने स्वरूप में स्थिर होकर गुणरूप आत्मश्री को शुद्ध रूप में प्राफा करता है, जिससे वह स्वतः ही शुद्ध आला के चार गुणों- आत्मसुख, आत्मज्ञान, आत्मदर्शन और आत्मवीर्य को प्राप्त कर लेता है। अतः अध्यात्मश्री को आसानी से प्रान करने के लिए जीवन को एक सर्वोत्तम आधारशिला पर टिकाना आवश्यक होता है और वह आधारशिला है-सत्य । पाश्चात्य लेखक इमर्सन के सुवाक्य में भी इसी बात का समर्थन मिलता है
"The finest and noblest ground on which people can live is truth."
'जिस सुन्दरतम और श्रेष्ठतम आधार पर जनता अपना जीवन टिका सकती है, वह है-सत्य ।'
चूँकि सब बलों में उत्कृष्ट बल आत्मका है, जिसके जरिये सर्वत्र विजयश्री प्राप्त होती है। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त आदि म्बकी गुलामी से मुक्त करके जो इन सब पर विजयश्री प्राप्त करा सकता है, वह है- आत्मबल। और वह आत्मबल सत्यनिष्ठा से प्राप्त होता है। इसी कारण सत्य के द्वारा प्राप्त होने वाली आत्मशक्ति के आगे सत्ता की-दण्ड की शक्ति पानी भरती है।
सत्य से मन और वाणी की शुद्धि हो जाती है।' इनके शुद्ध होते ही आत्मा भी शुद्ध हो जाती है। शुद्ध आत्मा विकार रहित होकर मनुष्य को सद्विचारों और सत्कार्यों में ही प्रेरित करती है। सत्य की शक्ति से ओतप्रोत शुद्ध आत्मा सत्याचरण करने की ही साक्षी होती है, वह असत्कार्य का समर्थन नहीं करती। सत्य की यह शक्ति ही आध्यात्मिक श्री है। जब यह शक्ति आत्मा में से निकल जाती है तो आत्मा को बुरे विचार घेर लेते हैं, बुरे कार्यों में यह प्रवृत्त हरने लगती है। 'सत्य हृदय का चक्षु है' यह बात तत्त्वदर्शियों ने बताई है। सत्यनिष्ठ के जब हृदयचक्षु खुल जाते हैं तो वह जीवों की गति-आगति, उनकी वेदनाओं, सुख दुःखों, उनके मनोभावों का संवेदन भली-भाँति कर सकता है। इस प्रकार सत्यनिष्ठा से वार आत्मौपम्य भाव की पराकाष्ठा तक पहुँच
'मनः सत्येन शुदयति'-मनु, ५/१०६, 'सत्येन शुद्ध पति वाणी'-तत्त्वामृत