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________________ १६० आनन्द प्रवचन : भाग ६ की। मनुष्य सत्य से भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रककार का ऐश्वर्य प्राप्त करता है। वास्तव में यह सत्य अमृत के समान मधुर है।' किन्तु एक बात निश्चित है कि यह आसिंक ऐश्वर्य या भौतिक ऐश्वर्य उन्हीं के पास सुरक्षित और स्थायी रहता है, जिनके रोम-गम में सत्य रम गया है जिनके संस्कारों में सत्य ताने-बाने की तरह गूंथ गया है। साष्ठ के कारण उनके मन, वाणी, बुद्धि और हृदय में वैभव व्याप्त हो जाता है; आध्यार्मिक-वैभव, आत्मिक लक्ष्मी उसके जीवन में अठखेलियां करने लगती हैं। आध्यात्मिक श्री क्या है ? इसके विपरा में मैं पहले कह चुका हूँ। आत्मा में ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप आदि की साधना के वतरण उपलब्ध विशिष्ट शक्तियाँ-जैसे चित्तसमाधि, संतोष, सहिष्णुता, मन की एकाग्रता, आत्मबल आदि शक्तियाँ प्राप्त होना ही आध्यात्मिक श्री की प्राप्ति है। आध्यात्मिक श्री कोई आकाश से टपकने वाली या किसी देव-गुरु या भगवान द्वारा प्राप्त की जाने वाली वस्तु नहीं है। वह एक विशिष्ट शक्ति है, जो सत्य की सतत आराधना-साधना करने से प्राप्त होती है। मुण्डकोपनिषद् (३/१/५) में सत्य के द्वारा आत्मिक उपलब्धि राताते हुए कहा है सत्येन लभ्यस्तपसा होष आत्मा, सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचगंग नित्यम् । अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभो, यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः।। 'उस आत्मा को जो शरीर के भीतर हृदय में विराजमान है, जो ज्योतिर्मय, प्रकाशमान है, उज्ज्वल है, सत्य से ही, सत्या तप से ही नित्य प्राप्त किया जाता है, अथवा सत्य ज्ञान से या ब्रह्म (आत्मा) में विधरम से उपलब्ध किया जाता है। जितेन्द्रिय दोषमुक्त तत्त्वदर्शी इसका साक्षात्का) (सत्य से) करते हैं।' ___ चूंकि सत्य ज्ञान और चारित्र का मूल है' वह स्वयं अपने आप में एक आध्यात्मिक-साधना है, तब उससे आध्यातिक श्री की वृद्धि न हो, ऐसा हो नहीं सकता। वास्तव में सत्य एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति है, जो सत्यनिष्ठ को निर्विकार, निर्भय एवं निर्लिप्त जीवन जीने की प्रेरणा करती है, तथा जो देश, काल, पात्र एवं परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होती। सत्य से अध्यात्मश्री प्राप्त होने के सम्बन्ध में पाइथागोरस (Pythagoras) कहता है "Truth is so great a perfedcion, that if God would render himself visible to men, he would choose light for his body and truth for his soul." ___"सत्य इतना महान् परिपूर्ण है कि अगा परमात्मा किसी के समक्ष प्रकट होना चाहे १ जैसा कि योगशास्त्र (२/६३) में कहा है.-- "ज्ञानचारित्रयोर्मूलं सत्यमेव वदन्ति थे। पात्री पवित्रीक्रियते तेषां चरमरेणुभिः।"
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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