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________________ १८८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ और उन्हें वह कर्णफूल बताया। सेठ ने कहा- "क्या इस कर्णफूल के बिना तुम्हारा कोई काम अटका था ? नाहक ही साढ़े तीन रुपये खोये। सोना तो इसमें जरा-सा है । " खानुमूसा ने विनयपूर्वक कहा - "बोलो बोली जा रही थी। मैंने साढ़े तीन रुपये बोले तो नीलाम करने वाले ने तुरन्त इस बोली को खत्म कर दी और मुझे यह कर्णफूल दे दिया । भाग्य भरोसे पर ले आया हूँ ।" सामने ही एक जौहरी कर्णफूल पर जाते बोल उठा देता हूँ।" बैठा-बैठा यह सब सुन रहा था। उसकी नजर इस "सेठ! बोली, इसे बेचना हो तो इसके पाँच रुपये में सेठ ने कर्णफूल पर बारीकी से दृष्टिपात किया तो उसके नीचे के भाग में एक चमकता हुआ हीरा जड़ा था। सोचा- "जौहरी पाँच रुपये दे रहा है तो अवश्य ही एक हीरा कीमती है।" अतः सेठ ने उस जाहिरी को और बारीकी से परखने को कहा। इस पर उसने कहा "लो दस रुपये ले लो।" सेठ ने देने से इन्कार किया तो वह बढ़ता बढ़ता दो सौ रुपये तक पहुँच गया। सेठ ने खानुमूसा से कहा- “खानु ! तुम्हारी तकदीर खुल गयी है।" प्रत्युत्तर में खानुमूसा ने कहा- "खुदा की और आपकी मेहरबानी है।" तुरन्त सेठ खानुमूसा को साथ लेकर एक अपने एक परिचित जौहरी के यहाँ पहुँचे। उसे वह कर्णफूल बताया। जौहरी ने उस कर्णफूल की कीमत दस हजार रुपये आँकी। सेठ ने कहा- "इसकी उचित कीमत बताओ।" जौहरी बोला---"फिर तो इस वस्तु का मालिक जो की, वही ठीक है।" सेठ-"इसमें माल का मालिक क्या कहेगा ? आप ही जो उचिता हो, वह कीमत बता दो न ?" यों सेठ और जौहरी के बीच झकझक चल रही थी, तभी उतावले होकर खानुनूसा बोले - " अच्छा भाई ! इसके सोलह हजार दो।" सेठ ने कहा "नहीं, जौहरी ! यह तो पागल है। कोई इतनी कीमती चीज सोलऊ हजार में दी जा सकती है ? कम से कम बीस हजार तो देने ही चाहिए।" इस पर खानुमूसा ने सेठ से कहा- "आप तो मेरे मुरब्बी हैं। मैंने अपनी जबान से जब एक बार सोलह हजार रुपये कह दिये तो अब उसके उपरान्त एक पाई भी लेना मेरे लिए हराम है। मैं सत्य पर दृढ़ हूँ, इसलिए सोलह हजार से अधिक नहीं ले सकता।" जौहरी ने सोलह हजार रुपयों की स्वर्णमुद्राएँ गिनकर दे दीं, जिन्हें लेकर सेठ और खानुमूसा घर आए । आप सुनकर आश्चर्य करेंगे कि उस प्रत्यवादी खानुमूसा ने सेठ की अनुमति लेकर बम्बई में अपनी दूकान की। उसमें लाखों रुपये कमाये। यही नहीं, उन्होंने बम्बई में और देश-विदेश में खूब प्रसिद्धि भी पाई। वे नामी लखपतियों में गिने जाने लगे। इसके अतिरिक्त लोकोपयोगी कार्यों में लाखों रुपये दान देकर अपनी यशकीर्ति बढ़ाई। कुछ ही वर्षों के बाद धंधे से निवृत्त होकर धोणाजी रहने लगे और खुदा की बन्दगी में अपना जीवन बिताने लगे।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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