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सत्यनिष्ठ पाता है श्री को २
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एक बड़ा बटुआ गिर पड़ा। जब वे बगसरा पहुंचकर विश्राम के लिए रुकी, वहाँ देखा तो बटुआ गायब ! उसी बटुए की तलाश कर मैं वहाँ से निकला हूँ। अगर बटुआ न मिला तो हमारी तो शामत आ जाएगी। दवार को मुँह बताने लायक नहीं रहेंगे हम ।" यों कहते वह गद्गद हो गया।
खानुमूसा ने जब यह सुना तो वे खड़े हए और आगन्तुक से पूछने लगे कि उस बटुए में कौन कौन से गहने थे? सवार ने फटापट उनके नाम गिना दिये। यह सुनकर खानुभूसा ने तुरन्त बह बटुआ सवार के सामने रखा और पूछा- "देखो यह बटुआ तो नहीं था ?" सवार हर्षित होता हुआ आनन्दमा होकर बोला-"हाँ भाई ! यही है वह बटुआ। आपको यह कहाँ मिला था ?"
“भाई ! मुझे यह रास्ते में मिला था, यहाँ से लेकर मैं यहाँ आया और इसके मालिक की प्रतीक्षा में बैठा था। इतने में आप आ गए। लो, इन सब मनुष्यों के समक्ष खोलो इस बटुए को और सब गहने देख ले।" बटुआ खोला और एक-एक गहना निकालकर देखा तो सभी गहने ज्यों के त्यों रख्ने मिले । अब तो खानुमूसा, सवार तथा गांव के कुछ प्रतिष्ठित व्यक्ति मिलकर बगसा पहुँचे। वहाँ रानी साहिबा चातक की तरह उस्तुक नेत्रों से प्रतीक्षा कर रही थीं। इझने में वह घुड़सवार सभी को साथ लेकर पहुँचा। उसके हृदय में हर्ष समा नहीं रहा । उसने गहनों का बटुआ रानीजी को सौंपते हुए अथ से इति तक सारी बात कही। रानी साहिबा ने खानुमूसा का महान उपकार माना और उसकी भलमनसाहत से प्रसन्न होकर लगभग एक हजार के गहने देने लगीं। परन्तु सत्यपरायण खानुमूसा ने साफ इन्कार करते हुए कहा- "इसमें से एक कण भी लेना मेरे लिए सूअर के मांस के समान है। आपके भाग्य के थे, आपको वापिस मिल गए। मैंने तो अपने कर्तव्य तथा सचाई का पालन किया है, कोई उपकार नहीं किया ।"
यों कहकर खानुमूसा चलने लगे, रानी साहिबा वगैरह ने उन्हें बहुत कुछ सौगन्ध दिलाकर १०-१५ दिन बाद अवश्य ही राणपूर आने का आग्रह किया। उन्होंने इसके लिए स्वीकृति दी और गये भी।
कुछ ही अर्से बाद खानुमूसा बम्बई पहुँच गए और अल्पवेतन पर एक भाई के यहां काम करने लगे। एक दिन वहाँ के भीत भरे सर्राफा बाजार से खानुमूसा जा रहे थे कि एक नीलाम करने वाले को देखा, जो एकहाथ में सोने का कर्णफूल लेकर उच्च स्वर से बोली बोल रहा था-"सवा तीन रुपये एक, सवा तीन रुपये दो।" खानुमूसा ने अपनी जेब सँभाली तो उसमें साढ़े तीन रुपये थे। उन्होंने उस कर्णफूल की बोली लगाई–साढ़े तीन रुपये।" नीलाम करने वाले ने तुरन्त साढ़े तीन रुपये एक, साढ़े तीन रुपये दो, साढ़े तीन रुपये तीन, कहकर बोली खत्म कर दी और खानुमूसा से साढ़े तीन रुपये लेकर वह सोने का कर्णफूल दे दिया।
खानुभूसा कर्णफूल लेकर उसे देखते-खते अपने मालिक की दूकान पर पहुंचे,