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आनन्द प्रवचन : भाग ६
और इस रास्ते में जाते हुए यह बटुआ गिर गया है। अतः वापस वाघणिया जाऊं और इस बटुए का मालिक मिल जाए तो उसे सौंप दूँ। न मिले तो वाघणिया गाँव के मुखिया को यह माल सुपुर्द कर दूँ। "
मुखियाजी को जब खानुभूसा ने यह गहन से भरा बटुआ बताया तो उनके मन में लोभ की लहर व्याप्त हो गई। उन्होंने खानुभूषा से इशारे में कहा- "इसमें से आधा भाग तुम्हारा और आधा मेरा बीता हुआ समया लौटकर नहीं आएगा। जिंदगीभर की दरिद्रता दूर हो जाएगी।” खानुभूसा ने खिन्न मन्] से सोचा- "मैंने कहाँ बिल्ली को दूध सौंपने जैसा काम कर दिया ?" फिर मुखियाजी से कहा- "अजी मुखियाजी ! अगर इस माल को हड़पने की मेरी नीयत होती तो मैं बाघणिया तक लौटकर क्यों आता ? रास्ते में एक भी आदमी तो क्या चिड़िया भी नीिं मिली। इस बटुए का माल मैं अकेला ही नहीं हजम कर सकता था, आपको सौंपने में आता ?"
मुखियाजी बोले- "भाई ! थोथी बड़ाई मत हाँक कपड़े देखते हुए बिलकुल गरीब मालूम होते हो, इसलिए मेरा कहना मानी, आजीवन सुखी रहोगे।" यों कहकर मुखियाजी माल हजम करने का षड्यन्त्र रची लगे। परन्तु खानुभूसा को सत्य से विचलित करना आसान काम न था । वह दृढता के स्वर में बोला “भाई ! अलबत्ता मैं गरीब हूँ, परन्तु अपने ईमान पर दृढ हूँ, में अपनी खानदानी पर जरा भी कलंक लगाना नहीं चाहता। मेरे भाग्य में धन होगा तो खुदा मुझे चाहे जिस रास्ते से दे देगा । "
मुखिया ने कहा- "यह भी खुदा ने ही देया है, यों मान लो न !"
"नहीं, मुखियाजी ! यों रास्ते में पड़ा हुआ माल खुदा का दिया हुआ नहीं माना जा सकता। यह तो दूसरों की मालिकी का है। इसे हड़पने में न तो नीति है, न सचाई है। हजार हाथ वाला चाहे जिस रास्ते से देगा; मगर इसमें से जरा-सा भी लेना मेरे लिए सूअर के मांस केसमान है। आप इस झूठे लालच में न पड़ें मुखियाजी !" यों कहकर वह बटुआ लेकर खानुमूसा फौरन वहाँ से चल पड़े और सामने के एक मकान के चबूतरे पर आ बैठे। सोचने लगे— “शाम लवत यहीं बैठता हूँ, अगर कोई इस माल का मालिक या उसका आदमी आए तो मैं उसे माल सौंपकर फिर बगसरा जाहूँगा । और तो कोई उपाय नहीं सूझता । "
यों खानुमूसा के मन में शुभविचारों की तरंगे उठ रही थीं, तभी घोड़ा दौड़ाता हुआ एक घुड़सवार एकाएक वहाँ आ पहुँच ॥ खानुभूसा के पास इकट्ठी हुई भीड़ ने पसीने से तरबतर एवं घबराए हुए उस सवार से पूछा "भाई ! कैसे घबराए हुए हो; ने क्या बात है ? शान्ति से कहो।" सकी उत्सुकतापूर्वक पूछा। आगन्तुक कहा - "हमारे गाँव (चूड़ाराणपुर) के मोलेसकाम दरबार की रानी साहिबा चुड़ाराणपुर से भैंसाणराणपुर जा रही थीं। साथ में सिगराम तथा ८-१० सवार थे। रास्ते में वाणिया से जब वे गुजर रही थीं, तभी अचानक लगभग ५० हजार के गहनों से भरा