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सायनिष्ट पाता है श्री को २ १७७
स्वयं प्रयोग शायद ही करता है। सिद्धियाँ और नब्धियाँ उसकी चेरी बनी फिरती हैं। प्रश्नव्याकरण और आवश्यकसूत्र में सत्यनिष्ठा प्राप्त होने वाली विविध उपलब्धियों का वर्णन किया गया है।
आवश्यकसूत्र में बतलाया गया है कि सत्य के प्रभाव से सत्यवादी समुद्र या जल की बाढ़ में डूब नहीं सकता, जल ही उसके लिए स्वतः तैरने योग्य जाता है। दिशा भूल जाने पर यथास्थान ले जाने वाला कोई न कोई मार्गदर्शक मिल जाता है। खौलता हुआ तेल, गर्म लोहा, शीशा आदि हाथ में लेने 1 पर आग उसका हाथ जलाती नहीं । सत्यधारी को ऊपर से गिराने पर भी उसकी मृत्यु नहीं होती, शस्त्रधारी शत्रुओं से घिर जाने पर भी सत्यधारी सही सलामत बच जाता है। वध, बन्धन, अभियोग, वैर आदि घोर उपद्रवों के समय वह बाल-बाल बच जाता है। सत्यपालों में ऐसी दिव्यशक्ति होती है कि स्वयं देवता भी उसकी सेवा में सहायता के लिए चले आते हैं। सत्यार्थी स्वयं भी देव के समान पूजनीय बन जाता है।
कान्तिपुरी नगरी के राजा वैरिदमन का छोटा पुत्र राजकुमार मकरध्वज बहुत ही विनीत, उदार, गम्भीर, सरल और पुण्यशाली था। एक बार नगरी के बाहर वन में वसन्तोत्सव था । वनपालक ने वसन्तोत्सव की अनुपम छटा निहारने के लिए राजा से प्रार्थना की। किन्तु बुढ़ापा आया देख राजा सव्यं न गए, उन्होंने सभी राजकुमारों को वसन्तोत्सव देखने भेजा। वहाँ बसन्तोत्सव देखी-देखते अन्य राजकुमारों में से किसी ने लाख, किसी ने दो लाख, किसी ने तीन लाख और किसी ने चार लाख स्वर्णमुद्राएँ दान दीं। भंडारी ने राजा से जाकर राजकुमार मकरध्वज की शिकायत की। इस पर राजा ने मकरध्वज से कहा - "पुत्र ! सुना है, तुम एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ दान दे आए हो। परन्तु मान लो, अकस्मात् किसी शत्रु राजा से शुद्ध करना पड़े, या दुष्काल आ पड़े उस समय भंडार खाली हो तो कैसे काम चलेगा ! यदि तुम अकेले ही एक दिन में एक करोड़ सोनैया खर्च कर आओ तो थोड़े ही दिनों में सारा भण्डार खाली हो जाएगा। भंडार में प्रतिवर्ष आवश्यक खर्च के बाद सिर्फ तीन करोड़ सौनैये बचते हैं। अतः जरा विचार करके खर्च करना चाहिए।"
यह सुनकर मकरध्वज ने विनयपूर्वक कहा - "पिताजी ! जिसके पुण्य प्रबल होते हैं, उस व्यक्ति के दान देते रहने पर भी भंडार में श्रीवृद्धि होती रहती है, भंडार उसी के खाली होते हैं, जो भाग्यहीन हो। "
इस पर राजा ने कहा---"अगर ऐसी गात है तो तुम जो एक करोड़ सोनैये खर्च कर आए हो, उन्हें अपने पुण्यबल से वापस लेकर आओ, अन्यथा तुम्हारा यह कथन कोरा बकवास समझा जाएगा।"
पिता की बात सुनकर स्वाभिमानी एवं सत्यप्रिय राजकुमार मकरध्वज उठा और वहां से चलकर ज्योंही नगरी के मुख्य द्वार के पास आया, त्योंही एक श्रृंगाली की आवाज सुनी। उसे शुभशकुन मानकर अपनेः शकुनज्ञान के आधार पर यह जान लिया