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________________ सत्यनिष्ठ पाता है श्री को१ १६६ सनु तिव तनव धाम वन घरनी। सत्यवन्त कहें तृनः सम दरनी। सत्यनिष्ठ पुरुष रल सर्वत्र आदर-सम्मान पाता है। सत्यनिष्ठ यह भलीभाँति समझता है कि मानव जीवन के सभी क्षेत्रों की सुव्यवस्था का आधार सत्य है। अगर सत्य नहीं होता है तो पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक एवं राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों में अव्यवस्था एवं अविश्वास फैल जाता है, फिर इन क्षेत्रों की सुख शान्ति हवा हो जाती है। असत्य, धोखादेही, बेईमानी, वफाई आदि से तो पारस्परिक विश्वास खत्म हो जाता है। पाश्चात्य विचारक 'इमर्सन' का कथन है "व्यापारिक जगत् में यदि विश्वास कावस्था का लोप हो जाए तो समग्र मानव समाज का ढांचा ही अस्त-व्यस्त हो सकता है ।" जब तक लोगों में पारस्परिक विश्वास नहीं होता, तब तक कोई भी किसी के . साथ रोटी-बेटी का, जीवन यापन की सामग्री का, व्यावसायिक सौदे का आदान-प्रदान करने में हिचकिचाता है। असत्य के अन्धका में जब तक किसी को वस्तु-स्थिति का यथार्थ रूप से पता न चलजाए, तबक भ्रमवा भले ही वे एक दूसरे से सम्पर्क कर लें या व्यवहार कर लें, लेकिन सत्य के सूर्य का प्रकाश होते ही परस्पर घृणा और तिरस्कार, निन्दा और निरादर की परिस्थितियाँ आते देर नहीं लगती। इसीलिए सत्यनिष्ठ व्यक्ति सत्य का मन-वचन-काया से चाचरण करता है, ताकि राष्ट्र, समाज और परिवार आदि में सुव्यवस्था बनी रहे, जिसम्म परस्पर विश्वास, सुखशान्ति, सहयोग, स्वस्थ-चिन्तन एवं आदर भाव से सबका कार्य चले। सत्यनिष्ठ व्यक्ति अपने प्रति, अपनी आत्मा, समाज, राष्ट्र, परिवारों में विश्व के प्रति, अपने कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति मन-वचन काया से सच्चा रहता है, इसके कारण वह इसी जीवन, इसी देह और इसी संसार में स्वर्गीय सुख प्राप्त करता है। उसके लिए सुख-शान्ति और साधन संतोष की कमी नहीं रहती। न मिले तो भी वह अात्म-संतुष्ट रहता है। वह अपने स्वरूप में स्थिर रहकर आस-लाभ जैसा सुख भोगता है, उसे बाह्य हानि-लाभ की कोई चिन्ता नहीं होती। उसका अन्तःकरण दर्पण की तरह निर्मल और मस्तिष्क प्रज्ञा की तरह सन्तुलित रहता है। वह न तो मानसिक दूसों से त्रस्त रहता है, और न ही निरर्थक तर्क-वितर्कों से अस्त-व्यस्त | वह जो कुछ करता है—कल्याणमय करता है, जो कुछ सोचता है—विश्वहित की दृष्टि से सोचता है। असत्य के दोष से मुक्त सत्यनिष्ठ व्याक के मन में कुकल्पनाओं का रोग फटक नहीं सकता। आदर्श की ओर उसकी दृष्टि रहती है, यथार्थ व्यवहार के धरातल पर उसके चरण उसे सत्य पर चलने में कहीं छकान, निराशा, द्वन्द्व, कुविकल्प, अशान्ति नहीं घेरती इसीलिए सत्यनिष्ठ व्यक्ति के लिए सत्य का आचरण सहज है, स्वाभाविक है। वह किसी के दवाब से, भय से या ! प्रलोभन से प्रेरित होकर सत्याचरण नहीं करता। वह समझता है कि सारे जगत् का मूलाधार सत्य है। उसके बिना जगत का
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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