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१६८ आनन्द प्रवचन : भाग ६
सत्य से बढ़कर कोई तप, जप, नियम, संयम नहीं है। जिसके हृदय में सत्य बैठ जाता है, उसके हृदय से समस्त पाप, दोष, फीतनताएं निकल जाती हैं, हृदय निर्मल हो जाता है, जिसमें परमात्मा (शुद्ध आत्मा) विराजमान हो जाता है।
मनुष्य ईट पत्थर चूने के बने हुए मन्दिरों में जाकर भगवान् की पूजा करता है, लेकिन सत्यनिष्ठ अपने हृदय मन्दिर में ही सत्या भगवान् को प्रतिष्ठित करके उनकी पूजा करता है । सत्य का आचरण ही उसके लिए ज्वान, मान, शान प्रभुवर का गुणगान और उनके गौरव का आह्वान है। सत्य ही उसके लिए रत्न का प्रकाश है और सत्य ही सुख है। सत्य के अद्भुत प्रकाश से उसका व्यक्तित्व चमक उठता है, उसका निर्मल यश चारों ओर फैल जाता है। सत्य ही उसके और संसार के जीवन का आधार है। स्थूल बुद्धि लोग अपने पाप-कलुष धोने और पुण्योमार्जन करने के लिए बाह्य यज्ञ और गंगा आदि नदियों में स्नान करते हैं, लेकिन सत्यार्थी सत्यव्रत पालन रूप महायज्ञ करके एवं .. सत्य की पावन गंगा में अवगाहन करके आमने अन्तःकरण को शुद्ध और निष्कलंक बना लेता है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थ महाभारत में स्पष्ट बताया है
अश्वमेघसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् । अश्वमेधसहस्रादि सत्यमेव विशिष्यते ।
" तराजू के एक पलड़े में एक हजार अश्वमेध यज्ञों का फल रखा गया और दूसरे पलड़े में एक सत्य के फल को तो भी हजार अश्वमेघ यज्ञों की अपेक्षा सत्य का पलड़ा भारी रहा।'
सत्यार्थी पुरुष सत्य की आग में तपकर सोने-सा खरा बन जाता है। वह अपने जीवन में जितना अधिक सत्यता का समावेश करता जाता है, उतनी ही अधिक उसे विराट् पुरुष की अनुभूति होने लगती है। व समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है। इससे उसकी दृष्टि अन्तर्मुखी हो जाती है, आत्मिक महानताएँ उसमें विकसित होने लगती हैं। ऐसा होने पर सत्यनिष्ठ साधक बाह्य प्रयोजनों और साधनों को सहायक तो मानता है, परन्तु साध्य नहीं मानता, वह उनकी अपेक्षा नहीं करता क्योंकि वह मानता है कि अपना उपादान शुद्ध होगा तो निमित्त स्वतः दौड़-दौड़कर उसके पास आएंगे।
सत्यनिष्ठ को साध्य विराट् पुरुष परमात्मा (शुद्ध आत्मा) के जब दर्शन हो जाते हैं, तब उसके जीवन की दिशा ही बदल जाती है। वह जीने-मरने को एक सरीखा मानता है । सत्य के प्रकाश में जब उसका अन्तःकरण जगमगाने लगता है, तब उसकी दृष्टि में बाह्य आडम्बर, मान-सम्मान और यशकीर्ति का महत्त्व गिर जाता है। दूसरों पर अपना प्रभाव डालने और बड़प्पन दिखाने का भाव अब उसे तुच्छ प्रतीत होता है। उसके विचारों में श्रेष्ठता और जीवन में सादगी आने लगती है। मनुष्य को दिखावटीपन की ओर खींचने वाली महत्त्वकांक्षाओं तथा किक कामनाओं की विपुलता अब उसके जीवन में बिलकुल नहीं रहती । तुलसीकृत रामायण की इस चौपाई के अनुसार उसका जीवन बन जाता है