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सायनिष्ठ पाता है श्री को:१
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सत्यनिष्ठ सय का आचरण क्यों करता है ? अब प्रश्न यह होता है कि सत्यनिष्ठ के। कई बार अनेक संकटों का सामना करना पड़ता है, अपनी जान को जोखिम में डालकर वह सत्य बोलने का प्रयास करता है, इससे उसे मिलता क्या है ? बल्कि सुकरात से सत्यनिष्ठ व्यक्ति को अन्त में जहर का प्याला पीना पड़ा, महात्मा गांधी को गोली खानी पड़ी और भी अनेक सत्यनिष्ठ व्यक्तियों को अपने परिवार स्वजन-स्नेहियों का वियोग सहना पड़ा, अनेक मुसीबतें उठानी पड़ी।
सत्यनिष्ठ के लिए सत्य ही एकमात्र निरपेच कसौटी है, उसी पर कस करके वह प्रत्येक निर्णय करता है। कार्याकार्य, हिताहित, या प्राप्तव्य-अप्राप्तव्य ज्ञान का निर्णय भी वह सत्य की दृष्टि से करता है,जो अचूक और स्थायी होता है। सत्यनिष्ठ को सत्यपालन, सद्ज्ञान प्राप्ति और सत्यनिष्ठा का जो आनन्द मिलता है, उसके आगे बाह्य विषयानन्द का कोई मूल्य नहीं है। न ही सत्यागलन के पीछे सत्यनिष्ठ की दृष्टि प्राणों या धनादि पर मोह-ममत्व रखकर उन्हें बचाने की होती है। बाह्य ज्ञान या बाह्य आनन्द सत्यार्थी की दृष्टि में गौण है। 'सत्यं जानमनन्तं ब्रह्म' इस उपनिषद् वाक्य के अनुसार ऐसा सत्यार्थी सत्य को अनन्त ज्ञान एवं ब्रह्म वी प्राप्ति का स्त्रोत मानता है। उसे सत्य को पाकर असीम आनन्द मिलता है।
असत्य का आचरण करेत हुए बार-बार जन्ममरण करने, अप्रतिष्ठित और निन्ध जीवन बिताने और कुगतियों या कुयोनियों में कष्ट तथा अज्ञानमय जीवन जीने की अपेक्षा वह सत्याचरण करते हुए मृत्यु का सहा वरण करना अच्छा समझता है। वह मृत्यु केवल शरीर की होती है, जो कि अनिवर्म है, मगर उसकी आत्मा सत्यपालन से अमर हो जाती है, अनेक गुणों से समृद्ध और यशस्वी हो जाती है, उसे फिर बार-बार जन्म-मरण की यातना और निन्द्य एवं अज्ञानमय जीवन की विडम्बना नहीं सहनी पड़ती।
सत्यनिष्ठा से उसका जीवन तेजस्वी, निर्मक और प्राणादि के मोह से निरपेक्ष बन जाता है कि उसे अपने शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं की अपेक्षा या चिन्ता नहीं सताती। वह सत्यपालन में मानव जीवन की सार्थकता समझता है। जीवन में जहां शिष्टता, नम्रता, उदारता, शील आदि गुणों के आवश्यक बताया गया है, वहां सत्यता को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। वास्ता में सत्य का ही ध्यान और गाना (चिन्तन-मनन) करने वाला, सत्य की परख, उसका यथार्थ ग्रहण और बखान करने वाला एवं सत्य का दर्शन अनुभव करने वाला ही सत्य स्वरूप परमात्मा को जान सकता है। प्रसिद्ध सगुणभक्त अब्दुर्रहीम खानखाना वत यह दोहा सत्यनिष्ठ के जीवन में अंकित हो जाता है
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदै सांच है, माकै हिरदै आप ।