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________________ १६४ आनन्द प्रवचन: भाग ६ मेरी तो निपुणता ही असत्य का अभ्यास करने में है। " तब उन साधुओं ने समझ लिया कि यह आदमी असत्य का अभ्यास करने के लिए हमारा समय खराब करने आता है। वास्तव में ऐसे सरासर असत्यवादी वत समाज या परिवार में कोई इञ्जत नहीं होती। एक बार असत्य जीवन में दृढ़ होने के बाद उसे जड़ मूल से निकालना बड़ा कठिन होता है। कई लोग दूसरों के प्रति भले बनने के लिए जहाँ सत्य कहना चाहिए, वहां मौनावलम्बन कर लेते हैं। उनसे पूछने पर वे तपाक से कह बैठते हैं-"थोड़ा-सा सत्य बोलकर कौन इस आदमी से दुश्मनी मोल ?" कुछ लोग ऐसे होते हैं कि श्रोताओं को धोखे में डालने के लिए या तो चिकनी-चुपड़ी बात करेंगे, जिनमें असत्य भरा होगा, या फिर वे मौन रहकर इशारों से असत्य टाएं करेंगे, अथवा द्वयर्थक शब्द बोलेंगे, जिससे सुनने वाला कुछ और समझे और तहने वाला किसी और अर्थ में कहे। ऐसे लोग उलझन भरा सवाल पूछे जाने पर सोजा सरल समझ में आने योग्य उत्तर देकर ऐसा असत्य मिश्रित उत्तर दे देते हैं कि सामने वाला चक्कर में पड़ जाता है। जैसे किसी ने किसी व्यक्ति को एक उपवास करते देखकर कहा “धन्यहो, आपको ! आप बड़े तपस्वी हैं !' तब उसका निषेध F करके यों उत्तर दे देते हैं "हाँ भाई ! तपस्या तो हम ही लोग करते हैं न ?" मनुष्य असत्य क्यों बोलता है ? इसलिए कि सत्य बोलने से शरीर को कष्ट सहना पड़ेगा, मार भी खानी पड़ेगी, शायद नुकसान भी सहना पड़े। इस प्रकार के डर से वह सत्य का द्रोह करता है। मनुष्य जन सत्य की अपेक्षा शरीर को, सुरक्षा को, समाज को या प्रतिष्ठा को श्रेष्ठ समझता है, तब सत्य को छोड़कर असत्य का सहारा लेता है, सत्य का द्रोह करता है। ऐसा कन्फ्रे वह अपनी आत्मा को अपमानित करता है। ऐसा व्यक्ति सत्ता, धन, स्वार्थ के लिए तथा दूसरों पर अधिकार करने के लिए सत्य के प्रति द्रोह करके असत्य आचरण बारता है। परन्तु सत्यनिष्ठ मानव इन या ऐसे ही किसी भी कारणवश असत्य का आचरण करके सत्य के प्रति द्रोह नहीं करता। वह जरा-सा भी असत्य बोलना अपनी आत्मा का अपमान करना समझता है। वह अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति, वचन, विचार या चेष्टा पर री पहरेदारी रखता है। उसमें सत्यनिष्ठता के कारण निर्भयता, साहस और अखण्ड जागृति होती है। वह परिणाम भीरुता को बिलकुल तिलांजलि दे देता है, और निखालस सत्य का मन, वचन, काया से आचरण करता है। सत्यनिष्ठ अवसरवादी बनकर कर्मी सत्य और कभी असत्य, बोलकर दोहरे व्यक्तित्व का व्यक्ति नहीं बनता। वह जैसा है, वैसा ही दुनिया के सामने आता है, वह घर और बाहर, दुकान और मकान में अलग-अलग के रूप में नहीं आता। वह बनावट, दिखावट, सजावट को कृत्रिम और एक प्रकार से असत्य पोषक मानता है
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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