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________________ सायनिष्ठ पाता है श्री को : १ १६३ सत्यनिष्ठा, वफादारी और कर्तव्यपरायणता से विलित नहीं होता। कई लोग अक्सरवादी होते हैं, वे अमुक समय पर तो सत्य बोलकर दूसरों को प्रभावित कर देते हैं परन्तु आगे चलकर भय या प्रलोभन का प्रसंग उपस्थित होते ही सत्य को ताक में रख देते हैं। ऐसे व्यक्ति सत्यमेष्ट न होने पर भी सत्यनिष्ठ होने का ढोंग करते हैं, किन्तु कभी न कभी उनकी कलई खुल ही जाती है। किसी यात्री के हाथ पर रेलवे के डिब्बे की खिड़की का कांच गिरा। चोट तो उसे साधारण-सी आई थी, लेकिन रेलवे कम्पनी से एक बड़ी राशि वसूल करने की नीयत से उसने कोर्ट में केस कर दिया। उसने अपने हाथ पर पट्टा बँधवा लिया। कोर्ट में जब वह पेशी पर गया तो लोगों से कहने लाग—"मेरे हाथ में इतनी चोट आई है कि वह ऊपर को नहीं उठ रहा है।' रेलवे कम्पनी की ओर से फिरोजशाह मेहता वकील थे। मजिस्ट्रेट के सामने जिरह करते हे वकील श्री मेहता ने उस व्यक्ति से पूछा- "भाई ! हाथ में चोट लगने से पहले तुझारा हाथ किस तरह ऊपर को उठता था?" चोट लगे यात्री ने हाथ ऊपर को उटाते हुए कहा-"पहले तो इस तरह आसानी से उठ जाया करता था साहब ।" बस, इसी क्रिया से साबित हो गया कि उसका हाथ ऊपर उठ सकता है, लेकिन वह जानबूझकर ऊपर नहीं उठा रहा है। फलस्वरूप वह केस हार गया। उसके असत्य की कलई खुल गई। वास्तव में असत्य के पैर कमजोर होते हैं। मनुष्य व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोषों के कारण सत्य की ओर लुढ़क जाता है। फेर तो वह व्यवस्थित ढंग से सत्य की ट्रेनिंग लेता है और सत्य की स्वाभाविकता खो बैठता है। ऐसा व्यक्ति असत्य बोलने का अभ्यास करता है, तब तो बड़ा आश्चर्य होता है कि बिना ही किसी स्वार्थ के यह झूठ क्यों बोलता है। ___मैंने सुना है कि एक मुनि के पास गुप्तचा विभाग का एक भाई कई दिनों तक लगातार प्रतिदिन आने लगा। उसने अपने जीवन की बहुत-सी बातें बताई और मुनि जी ने सुनी भी। उसका बात करने का ढंग बड़ा ही रोधक और आकर्षक था। उसके चले जाने के बाद मुनिजी के मन में विचार आगा- "यह इतनी छप्परफाड़ बातें कहता है, ये सत्यो हों, इसमें सन्देह है। परन्तु साध-साथ उसके असत्य बोलने का कोई प्रयोजन भी तो नहीं था। धीरे-धीरे मुनियों की लगा-वह पीने सोलह आने असत्य बोलता है। पर हम साधुओं के पास यह क्यों आता है, क्यों इतनी निर्रथक बातें करता है ? यह एक कुतूहल का विषय था। बहुत देनों के सम्पर्क के बाद एक दिन उस मुनि जी ने पूछ ही लिया--- "भैया ! तुम्हारी बातें सारी की सारी असत्य निकलती जा रही हैं। तुम्हारा इस प्रकार असत्य बोलने वत प्रयोजन क्या है ?" उसने अत्यन्त स्वाभाविक रूप से कहा-"मैं गुप्तचर (सी०ी०आई०) विभाग में काम करता हूँ।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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