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आनन्द प्रवचन : भाग ६
मान लीजिए किसी सम्प्रदाय का अनुवायी सत्यार्थी साधक यह मानता है कि 'पशुबलि करना सत्य है, मद्य, मत्स्य, मांस, मुद्रा और मैथुने ये पांच मकारों का सेवन करना सत्य है, शूद्र नीच है, ब्राह्मण उच्च शूद्रों को वेद या शास्त्र नहीं पढ़ाना चाहिए। उनको छूना अधर्म है, या कोई गुस्लिम मौलवी यह मानता है कि दूसरे सम्प्रदाय वाले (काफिर) लोगों को जबरन मुस्लमान बनाना धर्म है, पर्दा प्रथा धर्म है, मृतभोज करना सत्य है । बताइए, प्राणियों के लिए तथा मनुष्यों के लिए अहितकर ये और ऐसी बातें क्या सत्य हो सकती हैं ? कदापि नहीं। यही कारण है कि सत्यनिष्ठ व्यक्ति केवल सत्य ही नहीं बोलता, मन वच्म काया से सत का आचरण करता है, अपने साथियों से सत्य का आचरण कराने (सत्याग्रह ) का प्रयत्न करता है और सत्या सत्य का भली भांति अन्वेषण करके सत्य विचारों या व्यवहारों को मानता है, असत्य विचारों को नहीं। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र (अ० ६) में कहा है
'अप्पणा सप्रेसेजा। '
'अपने आपसत्य का अन्वेषण करे, और परखे।'
कई बार सत्य परस्पर विरोधी और मित्र दिखाई देता है, उस समय सत्यनिष्ठ साधक मन में घबराता नहीं। वह सोचता है, मनुष्य के मन की भूमिकाएँ, दृष्टिबिन्दु एवं अपेक्षाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं, इसलिए सत्य वत भी अनेक रूप हो सकता है। सूर्य एक होते हुए भी, जितने और जैसे जलपात्र हंगी, तदनुसार उतने और वैसे ही सूर्य के प्रतिबिम्ब दिखाई देंगे। एक ही सत्य भगवान सब देहों में विराजमान है, फिर भी अभिव्यक्ति का आधारभूत मन प्रत्येक शरीर में विभिन्न स्वरूप का है। इसीलिए तो कहा गया है-
'एकं सद् विप्रा बहुदा वदन्ति'
'एक ही सत्य का विद्वान अनेक प्रकार से कथन करते हैं।'
अतः सत्यनिष्ठ साधक परस्पर भिन्न' दिखाई देने वाले सत्यों में सापेक्ष दृष्टि से समन्वय स्थापित करने का प्रयास करेगा, व घबरायेगा नहीं वह जिस सत्य को पकड़ कर चल रहा है, उसे सरलता से, बिना किसी पूर्वाग्रह के अनाग्रहपूर्वक समझने का प्रयत्न करेगा, और अन्तःस्फुरित सत्य के अनुसार जिस समय जो सत्य प्रतीत होगा, उसी के अनुसार आचरण करेगा। वह मुक्तशिन्तन करेगा।
हाँ, तो मैंने सत्यनिष्ट में सत्य की त्रिवेणी धारा प्रवाहित होने की बात बताई - ( १ ) वह स्वयं सत्य बोलेगा, (२) पार्श्ववर्ती जनों से सत्याचरण की अपेक्षा रखेगा और सत्य का आग्रह भी, और (३) सत्य का सतत अन्वेषण करता रहेगा।
यही कारण है कि सत्यनिष्ठ पुरुष का चित्त शुद्ध और सरल होने से उस पर प्रत्येक वस्तु उसी तरह प्रतिबिम्बित हो जाता है, जैसे दर्पण तल पर प्रत्येक चेहरा। इस कारण सत्यनिष्ठ पुरुष को अपनी गलती या दोष के विचार का भान तुरन्त हो जाता है। गलत मार्ग पर जाने का प्रसंग उसके लए प्रायः कम हो जाता है क्योंकि गलत