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आनन्द प्रवचन भाग ६
पास चली गई। वहीं नाना ने उसका पालन-पोषण किया। नाना के कोई पुत्र न होने से जयकर को दिवंगत नाना की सम्पत्ति मिल गई जो थोड़ी-सी थी।
जयकर यदि अवरोधों और विरोधों के बीच अपने चित्त का संतुलन खो बैठता और सतत अपने अध्ययन को न बढ़ाता तो क्षना सुयोग्य विद्वान कैसे बनता ? इतने तिरस्कारों और अपमानों के बीच भी जयकर अपनी संस्कृति न छोड़ी।
आगे चलकर जयकर अच्छे वकील बने। इंगलैण्ड में जाकर वकालत करने लगे। इतनी अपार आय और बड़े-बड़े विलास एवं व्यसनी मित्रों के बीच रहते हुए भी जयकर ने कभी मध और मांस का सेवन न किया, यहाँ तक कि सिगरेट भी नहीं पी। उनका चरित्र उज्जवल एवं निष्कलंक रहा।
यह है संतुलितचित्त का चमत्कार, जो कुर्व्यसनों से दूर रहने से प्राप्त होता है। चित्त की संतुलित स्थिति पर शारिरिक स्वास्थ्य निर्भर है। देह का कोई भी रोग इतना कष्टकर नहीं होता, जितना चित्त का उद्देश। चित्त को स्वच्छ, शान्त एवं संतुलित रखने से आत्मिक प्रफुल्लता प्राप्त होती है, जो सबसे बड़ी 'श्री' है, संजीवनी बूटी है। चित्त के संतुलन में मानसिक शान्ति तो प्राप्त होती ही है, पाचन क्रिया भी ठीक रहती हैं, ठीक भूख लगती है । उद्विग्न अवस्था में भूख बिलकुल मर जाती है। पेट भारी रहता है, सिर दर्द करता है, चित्त पर बोझ होता है। चित्त असंतुलित होते ही कोई न कोई शारिरिक व्याधि शुरू हो जाती है। वित्त की असंतुलित स्थिति में मनुष्य को हिताहित का, भले-बुरे का ज्ञान नहीं रहता, न कर्तव्यबुद्धि का भान रहता है।
इसलिए संभित्रचित्त का एक अर्थ असंतुलित चित्त है, इसके रहते मनुष्य को अपने जीवन में सफलता, विजयश्री, शान्ति और प्रसन्नता नहीं मिलती ।
मैंने आपके समक्ष भिन्नचित्त के विभिन्न अर्थों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। आप इस पर मनन-चिन्तन कीजिए और समस्त प्रकार की 'श्री' से वंचित रखने वाले भिन्नचित्त से बचने का प्रयत्न कीजिए। श्रीहीन जीवन कथमपि उपादेय नहीं, है, जिसकी ओर महर्शि गौतम ने संकेत किया है---
'भिन्नचित्तं भयट अलच्छी'