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________________ २६ सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : १ धर्म प्रेमी बन्धुओ ! पिछले दो प्रवचनों में मैं श्रीहीन जीका के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से विवेचन कर चुका हूँ। आज मैं आपके समक्ष श्रीसम्पन्न जीवन के सम्बन्ध में अपना चिन्तन प्रस्तुत करूँगा। गौतमकुलक का यह छब्बीसवाँ जीवनसूत्र है, जिसमें महर्षि गौतम ने बताया है— 'सच्चे ठियंतं भयए सिरी य' सत्य में स्थित व्यक्ति श्री को पाता । सर्वतोमुखी श्री से युक्त बनता है। सत्य में स्थित कौन ? क्या पहिचान ? T सत्यनिष्ठ व्यक्ति जीवन में समग्र श्रीसमूह को उपलब्ध करता है, परन्तु प्रश्न यह है कि सत्यस्थित व्यक्ति कैसा होता है, उसकी क्या पहिचान है ? वैसे तो आज विश्व में ढाई-तीन अरब मानव हैं, किसी के ललाट पर यह नहीं लिखा है कि यह सत्यवादी है या सत्यनिष्ठ है, मगर जो सत्य का मन, वचन और काया से पालन करता है, अपने जीवन को जीन्स के प्रत्येक व्यवहार और आचरण को सत्य के चरणों में समर्पित कर देता है, वही सतानिष्ठ कहलाता है। और दुनिया उसे पहचान लेती है, चाहे वह धरती के किसी भी कोने में क्यों न बैठा हो । सत्य की किरणें सूर्य की किरणों की तरह सर्वत्र स्वतः ही पहुँच जाती हैं। अपने सत्याचरण के लिए कहीं ढिंढोरा नहीं पीटना पड़ता और न ही उसे सिद्ध करने के लिए किसी वकील की आवश्यकता रहती है। सत्य अपने आप अपना प्रचार कर देता है। वैदिक पुराणों में बताया गया है वित जब किसी की तपस्या बढ़ जाती है तो इन्द्र का आसन हिल जाता है, वह समझ जाता है कि कोई विशिष्ट तपस्वी स्वर्ग के सिंहासन को अधिकृत करने हेतु आने वाला है। इसलिए इन्द्र उसकी कसौटी करता है, तमाम देवों को कसौटी करने के लिए भेजता है। उसे अपने तप से विचलित करने के लिए नाना उपाय करता है, और जब वह देख लेता है कि यह अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ है, तब उसे नमन चन्दन करता है, उसकी पूजा करता है। उसी प्रकार जो व्यक्ति सत्य
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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