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संभिन्नचित्त होता श्री से कंचित : २ १५१ थे। उनका विश्वास था कि असफलता के बाा सफलता और अवनति के बाद उन्नति आती ही है। विपत्तियों से घबराकर मैदान छोड़ भागने वाला भीरू कभी सम्पत्तियों का अधिकारी नहीं हो सकता। वे आशा, उत्साह, धैर्य और साहस का मूल्य जानते थे। वे यह भी जानते थे कि आज संकट में यदि हमा साहस से काम लेकर स्थिर चित्त से काम में लगे रहे तो कल अवश्य ही यह काम हम सुन्दर प्रतिफल देगा। अतः वे अपने निश्चित पथ पर दृढ़निष्ठा से आगे बढ़ते गए।
उन्होंने अपने साहित्य की अलोकप्रियता का कारण गहराई से खोज निकाला कि उनका विविध विषयों पर लिखना भी प्रगति-अवरोध का कारण है। एक मनुष्य अनेक विषयों में पारंगत नहीं हो सकता। अतः पूर्णतया चिन्तन के बाद अपने असंदिग्ध निश्चय पर पहुंचते ही उन्होंने अपने कार्य में सुधार कर लिया। उन्होंने विषय वैविध्य को छोड़कर केवल एक ऐतिहासिक विषय व उठा लिया और उसी में एकनिष्ठ तथा एकचित्त होकर पढ़ना-लिखना और विचार काना शुरु किया। इस एकनिष्ठा का सुफल यह हुआ कि वे शीघ्र ही ऐतिहासिक उपनास लिखने में पारंगत हो गए। उनकी तपस्या के फलस्वरूप उनके ऐतिहासिक उपन्यास इतने लोकप्रिय हुए कि कुछ ही समय में वे अपना बढ़ा हुआ सारा कर्ज ही नहीं चुकर पाए, वरन् श्रीसम्पन्न भी बन गए।
यदि वाल्टर स्काट बिखीर लगन वाले और अस्थिरचित्त वाले होते तो क्या वे इस महती सफलता एवं श्रीसम्पन्नता के अधिकारी बन सकते थे ? यदि वे अपना लेखन-कार्य छोड़कर, अन्य व्यवसाय या नौकरी की ओर दौड़ते तो सम्भव है, उन्हें असफलता का मुँह देखना पड़ता। मैदान छोडकर भागे हुए सिपाही की तरह उनका भी साहस संदिग्ध होता।
मैंने आपको व्यावहारिक क्षेत्र में चित्त की स्थिरता से लाभ और अस्थिरता से हानि के उदाहरण इस विषय को हृदयंगम करने की दृष्टि से प्रस्तुत किये हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी चित्त की अस्थिरता की बहुत बड़ी हानि और चित्त की स्थिरता से अपार शक्ति प्राप्त होती है।
लाग्रथिम (लघुगणक) के सिद्धान्त की खोज करने में नेपियर को बीस वर्ष तक कठिन परिश्रम करना पड़ा था। उसने लिखा है कि इस अवधि में उसने किसी अन्य विषय को मस्तिष्क में नहीं आने दिया। एक विषय पर ही बार बार चित्त की स्थिरतापूर्वक उलट-पुलट कर विचार करने सही तल्लीनता बनती है। उस चिन्तनकाल में सार्थक विचारों का एक पुंज मस्तिष्क में वनम करने लग जाता है। यही है स्थिरचित्त का सुफल ।
प्रश्न होता है कि चित्त स्थिर कैसे हो? क्योंकि यह तो अतीव चंचल और अस्थिर है। इसे वश करना अत्यन्त कठिन है। चित्त एक धारा में बहना नहीं चाहता। तथागत बुद्ध ने भी चित्त को नदी की उपमा कर बताया है
'चित्तनदी उभयतो वाहिनी, बहकि, पुण्याय, वहति पाया य च'