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संभिन्नत्ति होता श्री से वंचित : २
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हमारे यहाँ एक कहावत प्रचलित है
'काम काम को सिखाता है।' इसमें जरा भी असत्य नहीं है, कार्य करने रहने से मनुष्य की उस कार्य में कुशलता बढ़ती है, किन्तु क्या उस आदमी में कार्य कुशलता ला सकती है जो आज तो अध्यापक का काम करता है, कल मशीनों के कारखाने में चला गया। कुछ दिन किसी सरकारी ऑफिस में नौकरी की, फिर कोई छोऽत्र-मोटा व्यवसाय करने लगा, आज बजाज का काम करता है, कल बिसातखाना बोल दिया ? आशय यह है कि जो व्यक्ति लाभ के लोभ में आकर परेशानी से बचने या देखा-देखी अपने चित्त की अस्थिरता के कारण जब-तब अपना व्यवसाय बदलता रहता है, या काम बदलता रहता है, क्या वह निपुण व्यवसायी या कुशल कार्यकर्ता हो सकता है, क्या वह श्री, सिद्धि और सफलता से सम्पन्न हो सकता है ? वतभी नहीं। यदि ऐसा सम्भव होता तो एक ही व्यक्ति न जाने कितने कार्यों का गुरु बन जाता। किन्तु ऐसा कभी होता नहीं। कोई-कोई व्यक्ति किसी एक ही कार्य में पूरे दक्ष होते हैं,बाकी कुछ न कुछ कार्य तो सभी करते हैं, पर उनमें वे परिपक्व नहीं हो पाते।
यही कारण है कि प्राचीन काल में वर्णव्यास्था के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति का धंधा नियत कर दिया था। इस कारण कोई भी व्यनिी अपने पैतृक धंधे में बहुत निष्णात हो जाता था और सामाजिक अव्यवस्था नही हो पाती थी।
आज चित्त की अस्थिरता के कारण हर कोई चाहे जो धंधा ले बैठता है और उसमें सफल न होने पर वह दूसरा, तीसरा धंधा अपनाता रहता है। यही श्रीहीनता और असफलता का कारण है। ___ 'काम काम को सिखाता है' यह उक्ति राभी चरितार्थ हो सकती है, जब कोई व्यक्ति किसी एक सत्कार्य को पकड़कर उसमें पूरे मनोयोग से चित्त की एकनिष्ठा से जट जाता है। ऐसी स्थिति में वह कार्य कितना ही कठिन हो, उसमें कुशलता, सफलता और श्रीसम्पन्नता मिलती ही है। अपनी एकनिष्ठा के आधार पर कितने ही अनपढ़ एवं साधारण मिस्त्री तकनीकी क्षेत्र में बहुत ऊंचे पदों पर पहुँचते देखे गये हैं। अंगूठा टेक व्यक्ति भी स्थिर चित्त के बल पर इंजीनियरों के बराबर बेतन लेते और उन्हें परामर्थ देते सुने गये हैं। केवल थ्योरी और नक्शों से सीखी तकनीकी विद्या किसी को उतना कुशल नहीं बना देती, जितना कि एफ़निष्ठ चित्त से किया गया काम उसे उस काम मे दक्ष बना देता है। कृषि के स्नातक की उपाधि लेकर आने वाला युवक क्या उस वृद्ध अनुभवी किसान की बराबरी का सकता है जिसका पसीना खेत की मिट्टी में बहा है ?
निष्कर्ष यह है कि व्यावहारिक क्षेत्र में किसी एक कार्य में पूर्ण पारंगत और दक्ष बनने के लिए और सब बातों से चित्त को हटाकर एकमात्र उसी कार्य में निश्चयपूर्वक चित्त को लगाना आवश्यक है। चित्त की चंचलना से शक्तियों का ह्रास होता है, सारी शक्तियां बिखर जाती हैं, या अनुपयोगी होकर नाइ हो जाती हैं।