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________________ १४८ आनन्द प्रवचन भाग ६ चित्त की इस अव्यवस्थितता या विकृति का अकसीर इलाज यह है कि चित्त में किसी भी आघात या ठेस को गहराई से या घर तक टिकने मत दीजिए। जैसे चट्टान पर पानी पड़ता है, पर वह बह जाता है, चट्टान पर उसका कोई असर नहीं होता, वैसे ही बड़ी-बड़ी आपदाएँ, मुसीबतें, विघ्न-बाधाएं या प्रतिकूलताएँ आपके चित्त की चट्टान पर पड़े तो भी उनसे घबराना नहीं चाहिए, न चित्त में उद्विग्न होना चाहिए। उतावले न होकर आपको शान्ति, धैर्य, साहस और विश्वास के साथ उन सभी आपदाओं का सामना करना चाहिए। व्यक्ति के चित्त की अव्यवस्थितत का कारण उसकी क्षणिक भावुकता, अधीरता और उत्तेजनाएँ हैं। अगर वह धैर्य से सोचे कि ये विपदाएं स्वयं टलने वाली हैं, धीरे-धीरे अच्छा समय आने वाला है, तो उसकी बहुत-सी चित्त व्यवस्थाएं स्वयं दूर हो जाती हैं। परन्तु व्यक्ति अपनी मनगढन्त कल्पनाओं द्वारा विघ्न बाधाओं को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर अधीर हो जाता है, इससे चिक अव्यवस्थित हो जाता है, विजयश्री या सफलता कोसों दूर चली जाती है। भिन्नचित्त का छठा अर्थ अस्थिरचित्त चित्त का एक कार्य या लक्ष्य में स्थिर न रहना भी संभित्रचित्त है। चित्त की अस्थिरता का अर्थ है- चित्त का किसी एक विषय में स्थिर न रहना। साधारण मानव का चित्त गिरगिट की तरह रंग वदन्नता रहता है। यों बारबार चित्त का रंग बदलते रहने से चित्त की अस्थिरता मिटाई नहीं जा सकती। बहुधा मनुष्य चित्त को स्थिर करने के लिए एक मिनट का समय भी नहीं दे पाया। ऐसे गृहस्थ का चित्त पहले धन में, फिर प्रतिष्ठा में तदन्तर कीर्ति में भटकता रहता है। वह एक ठिकाने नही रहता। ऐसे पुरुषों के चित्त में महापुरुषों को वाणी का प्रभुभक्ति का और शास्त्रज्ञान का कोई रंग नहीं चढ़ता। वे पुनः पुनः अगने चित्त को उन्हीं विषयविकारों में लगाते रहते हैं। जैनाचार्य रत्नाकर ने हारकर प्रभु चरणों में इसी प्रकार की प्रार्थना की है— लोले क्षणावसनिरीक्षणेन, यो मानसे रागलवे विलनः । न शुद्धसिद्धापयोधिमध्ये, धौतोऽप्यगात्तारक ! कारणं किम् ? चंचल नेत्रवाली स्त्रियों के मुख को देखने से चित्त में जो राग का रंग लग गया है, वह शुद्ध सिद्धांत रूपी समुद्र में धोने पर भी नहीं गया, हे तारक ! इसमें क्या कारण है ? क्या इस प्रकार का अस्थिरचित्त करेंगे एकनिष्ठा से प्रभुचरणों में लग सकता है ? प्रभुचरणों में लगना तो दूर रहा, वह नैतिक्त, सामाजिक और आध्यात्मिक विषयों में भी नहीं लग सकता ।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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