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________________ संभिन्नचित होता श्री से वंचित : २ १४७ बिलकुल निकाल फेंके और शान्ति एवं स्थिर कित से आत्मविश्वासपूर्वक समस्या या उलझन को सुलझाने का प्रयत्न करे। अव्यवस्थित चित्त किसी कार्य में श्री को पाप्त भी न फटकने देगा। अव्यवस्थितचित्तता एक ही प्रकार की नहीं है। दुर्बल चित्त वाले व्यक्ति के अनेक रूप होते हैं, और वे सब अव्यवस्थित होते हैं। एक व्यक्ति मानसिक रोगों से पीड़ित था | उसके चित्त में मौत और विद्रोह के अनेक विचार सतत विद्रोह भचाए रहते थे। उसे हर समय कुछ न कुछ चिन्ता, शंका और भीति बनी हुई रहती थी उसे अपने घर, परिवार एवं व्यापार में हानि का डर लगा रहता था। इस कारण उसे नींद नहीं आती थी, उसकी स्मरण शक्ति भी क्षीण हो गई थी, किसी काम में चित्त नहीं लगता था। पित्त की शान्ति के लिए वह कई गण्डे-ताबीज भी करा चुका था, पर कोई लाभ नत्री हुआ। उसका चित्त जीवन से ऊब गया। एक सरकारी ऑफिसर की पदोन्नति नहीं हो रही थी। उससे कम योग्यता वाले व्यक्ति सिफारिश और रिश्वत के बल पर बढ़ गए। वह जहां का तहाँ रहा। इस अत्याचार का उसके चित्त पर आघात लगा कि मी वर्षों तक वह अनिद्रा, चिन्ता और शोक से दग्ध रहा, उसका चित्त काम में नहीं लगा था। चारों ओर अन्धेरा ही अन्धेरा उसके सामने था। ये और इस प्रकार के कई दुर्बल चित्त वाले लोग अपने चित्त को अव्यवस्थित बनाकर कष्ट पाते हैं। न तो उन्हें कोई सफलता या विजयश्री मिलती है और न ही 'श्री'। ___मनुष्य का 'अहं' तनिक-सी बात से कुण्ठिा हो जाता है। चित्त में उत्पन्न प्रत्येक दुर्भाव-क्रोध, निराशा, द्वन्द्व, अतृप्ति, आतुरुा, कामावेग, विक्षोभ, उद्वेग, डर, अभिमान, अहंभाव एवं अपराधवृत्ति आदि धीरे-धेरे दबकर मानसिक रोग या चित्तवृत्ति की विकृति के रूप में फूट निकलते हैं। उसका चित्त अव्यवस्थित हो जाता है। हर बात को वह शंकाशील और विपरीत दृष्टि से सोचने लगता है। इसी प्रकार कोई भी कार्य प्रारम्भ करने का विचार करते ही असफलता का भय चित्त में उठा करता है, जो व्यक्ति की दृढ़ श्छाशक्ति को शिथिल कर देता है। असफलता का भय मनुष्य के चित्त को संशयशगेल ही नहीं बनाता, बल्कि वह सचे रास्ते पर चलने में बाधक बन जाता है। सच्चे रहते से मतलब है---अपने विवेक द्वारा जिस रास्ते पर उसने चलने का निश्चय किया है, वह ! ऐसी दशा में व्यक्ति चलना चाहता है.—विवेक द्वारा निश्चित रास्ते पर लेकिन चल पड़ता है उलटे रास्ते पर । यही अव्यवस्थित चित्त की निशानी है, इसे चित्तभ्रम म स्मृति-विभ्रम या चित्त का दीवानापन भी कहते हैं। चित्त की यह दुःस्थिति काफी देर जक रहने पर मानव की मानसिक स्नायु ग्रन्थियां अत्यन्त निर्बल होकर जड़-सी हो जाती हैं।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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