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________________ १४४ आनन्द प्रवचन भाग ६ चाँदी, और कुछ नहीं तो, लोहा अवश्य मिलेगा।'' यह व्यवस्थित चित्त का लक्षण नहीं है। क्या सोने-चाँदी के लिए कोई अपनी तमाम जमीन खोद डालेगा ? लोग शून्य चित्त से 'कुछ भी तो मिलेगा' इस विचार से कमा करते हैं, वे भी अभीष्ट सफलता या विजयश्री से वंचित रहते हैं। अगर किसी विशिष्ट वस्तु का लक्ष्य न बनाकर काम किया जाता है, तो उसका परिणाम भी जैसा जैसा हीहोगा, उसका कोई उल्लेखनीय परिणाम नहीं आ सकता । फूलों के आस-पास अनेक जीव जन्तु घूमते रहते हैं, परन्तु शहद तो मधुमक्खी ही प्राप्त करती है, क्योंकि वह एक निश्चित विहार से फूलों के पास मंडराती है। कई लोग जिन्दगी भर कठोर परिश्रम किया करते हैं, किन्तु उनके परिश्रम के पीछे कोई व्यवस्थित विचार नहीं होता, वे भविष्य के बारे में कोई निश्चय भी नही करते, इसलिए इतना सब कुछ करके भी असफल और दरिद्र रहते हैं। एक किसान ने कुआं खोदना शुरू किया। दस हाथ खोदने पर भी जब पानी नहीं निकला तो वह निराश हो गया। दूसरी जगह खोदने लगा। दूसरी जगह भी जब दस हाथ खोदने पर पानी न निकला तो तीसरी जगह खोदने लगा। यों उसने ५-७ स्थानों पर दस-बारह हाथ खोदा, पर कहीं पानी नहीं मिला, तब हताश होकर घर लीट आया। उसने अपनी व्यथा कथा एक बुद्धिमान व्यक्ति को सुनाई। उसने उसे समझाते हुए कहा --- "तुमने पांच-सात स्थानों पर दस का हाथ खोदा, यदि तुम अलग-अलग जगह न खोदकर एक ही जगह ५०-६० हाथ योदते तो अवश्य ही तुम्हें पानी मिल जाता। तुमने धैर्य रखकर व्यवस्थित और सिर चित्त से काम नहीं किया, बल्कि थोड़ा-थोड़ा खोदकर निर्णय बदल लिया। अब कुन व्यवस्थित ढंग से चित्त की स्थिरता एवं एकाग्रतापूर्वक एक ही स्थान पर खोदो और जब तक पानी न निकले, तब तक खोदते ही रहो ।” उसने इस बार दृढ निश्चयपूर्वक व्यवस्थित ढंग से फिर खोदना शुरू किया। लगभग २० हाथ खोदते ही उसे पानी मिल गया। बन्धुओ ! आप समझ गये होंगे कि अध्यवस्थितचित्त से कार्य करने में किसी हानि है और व्यवस्थित चित्त से कितना लाभ है ? इसीलिए नीतिज्ञों की यह प्रेरणा कितनी लाभदायक है 'अव्यवस्थितचित्तानां हस्तिमानमिव क्रियाः ' जैसे हाथी नदी में स्नान करने के बाद पुनः धूल में लौट जाता है. इसलिए उसकी स्नान क्रिया व्यर्थ हो जाती है, वैसे ही जिनका त्रित्त अव्यवस्थित है जमा हुआ नहीं है, एक ध्येय में एकाग्र नहीं है, उनकी क्रियाएँ भी व्यर्थ हैं। कई बार अवांछित या व्यर्थ की कल्पनाएं करने से चित्त अस्त-व्यस्त हो जाता है, वह किसी अभीष्ट कार्य को करने का विचार करता है, परन्तु दूसरे ही क्षण अनेक संशय, बहम और कल्पनाएँ आकर उस कार्य में रुकावट डाल देती हैं। अव्यवस्थित चित्त वाला व्यक्ति हृदय व संवेदनशीलता के कारण एक साथ
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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