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________________ १३८ आनन्द प्रवचन भाग ६ इसी प्रकार एक ही काम में लगे दो व्यक्तियों को देख लीजिए। एक अधिक कुशल है जबकि दूसरा कम। एक ही कक्षा में पढ़ने वाले एक ही विषय के दो विद्यार्थियों को लीजिए, परीक्षा के समय उनमें से एक अधिक अंक लाता है, दूसरा कम । संसार के विद्वान्, कलाकार, अध्यापक, वैज्ञानिक, दार्शनिक, लेखक किसी भी वर्ग के व्यक्तियों को ले लीजिए, अनेकों में उस बीस का अन्तर मिलेगा ही। एक का कार्य दूसरे की अपेक्षा कुछ न कुछ न्यूनाधिक सुन्दर होगा। क्या आपने कभी सोचा है कि इस अन्तर का वास्तविक कारण क्या है ? आप ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम बतला देंगे, परन्तु ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम जिस कारण अधिकाधिक होता है, वह कारण है चित्त की एकाग्रता, तल्लीनता एवं तन्मयता । जो व्यक्ति जिस समय अपना का जितना अधिक चित्त की एकाग्रता, तल्लीनता या तन्मयता से करेग। उसका कार्य स समय उतना ही अधिक सुचारू एवं सुन्दर होगा। जो व्यक्ति जितनी अधिक एकाग्रता से किसी विषय में चित्त को केन्द्रित करके चिन्तन करेगा, उसके विचार उतने ही प्ष्ट एवं उन्नत होंगे। वह अपने कार्य में उतनी ही शीघ्र सफलता एवं विजयश्री प्राप्त करेगा। चित्त की एकाग्रता, तन्मयता और तल्लीनता, जितनी सूक्ष्म एवं स्थायी होती है कार्य का सम्पादन उतना ही शीघ्र और सुन्दर होता है। किसी कला एवं कार्य के प्रशिक्षण में दो व्यक्तियों में समय, मात्रा, कुशलता और सीमा में जो अन्तर रहता है, वह भी इसी एकाग्रता की मात्रा के अन्तर के कारण होता है। संसार भर की समस्त क्रियाओं का आधकर्ता चित्त है, शरीर तो केवल साधन है। क्या आपने नहीं देखा है कि एक व्यक्ति, जो शारीर से स्वस्थ, हृष्टपुष्ट एवं सम्पन्न है, वह किसी कार्य को इतनी सुन्दरता से सम्पन्न नहीं कर पाता, जबकि दूसरा व्यक्ति, जो शरीर से दुबला-पतला और अस्वस्थ एवं असम्पन्न है, उसी काम को बहुत ही सुन्दर ढंग से सम्पन्न कर दिखाता है ? यदि शरीर ही वास्तविक कर्त्ता हो तो शारीरिक सम्पन्नता वाले हर व्यक्ति का कार्य दूसरे दुर्बल एवं असम्पन्न व्यक्ति से अवश्य ही सुघड़ एवं सुन्दर होना चाहिए। मगर ऐसा नहीं होता। इसका कारण एक का वास्तविक कर्त्ता चित्त एकाग्र एवं तन्मय होने के कारण स्वस्थ एवं सशक्त है, जबकि दूसरे का उतना नहीं । क्या लौकिक, क्या अलौकिक समस्त सफलताएं, विजयलक्ष्मी एवं उन्नतियाँ वास्तविक कर्ता चित्त की क्षमताओं पर निर्भर हैं। और चित्त की शक्ति है—एकाग्रता । इसीलिए गौतम महर्षि ने जीवनसूत्र के रूप में कह दिया "जिस व्यक्तिका चित्त एकाग्र अपने लक्ष्य में केन्द्रित नही होगा, जी व्यक्ति अपने सत्कार्य या सदुद्देश्य में तल्लीन और तन्मय नहीं होगा, उसे किसी सिद्धि, सफलता, विजयलक्ष्मी या उन्नति के दर्शन नहीं होंगे। " संसार का प्रत्येक व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में सफलता, सिद्धि, विजयश्री एवं उन्नति चाहता है, परन्तु जीवन में निश्चित सफलता या विजयश्री पाने के लिए चित्त में
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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