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________________ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २ १३७ शिथिल और अशक्त हो गईं, आत्मा को भी अगान्ति और उद्विग्नता रही, वह किसी भी सत्कार्य में न लग सका। चित्त भी स्वयं मकान में रहने वाले किरायेदार की तरह उद्विग्न बना रहा। आत्मा को सहयोग तो वह स्वयं अदूषित, शुद्ध एवं सुसंस्कृत दशा में ही दे सकता था, किन्तु दूषण, कुत्सा और मलीनता से लिपटा हुआ चित्त भला आत्मा की थात कैसे सुनता, और कैसे सोचता शास्त्रों और गुरुओं की वाणी पर ? यही कारण है कि असहयोगी रूठे चित्त ने जीवन-प्रासाद की गारी शोभा बिगाड़ डाली। तब हर कार्य में विजयश्री के बदले पराजय एवं असफलता के ही दर्शन न होंगे तो क्या होगा ? संभिन्नचित्त का चौथा अर्थ : व्यग्र या असंलग्न चित्त संभिन्न चित्त का एक अर्थ है-व्यन, बिखरा हुआ या असंलग्न चित्त। चित्त की एकाग्रता से जहाँ काम नहीं किया जाता, यहाँ शक्ति बिखर जाती है और उस काम में सफलता एवं विजयश्री प्राप्त नहीं होती। किसी भी कार्य में चित्त की एकाग्रता के साथ संलग्न हो जाने से ही उस कार्य में सिद्धि या विजयश्री मिल सकती है। इंग्लैंड के प्रसिद्ध विद्वानू कार्लाइल का कथन है कि एक ही विषय पर अपनी शक्तियों को केन्द्रित कर देने से कमजोर से कमजोर प्राणी भी कुछ कर सकता है, मगर एक बहुत बलवान प्राणी भी यदि अपनी शत्तियों को अनेक विषयों में बिखेर देता है तो फिर वह कुछ नहीं कर सकता। एक-एक बूंद पानी अगर एक ही स्थान पर निरन्तर पड़ता रहे तो कठोर पत्थर में भी छेद हो जाता है. पर यदि पानी का बहाव एक बार शीघ्रतापूर्वक उस पर से निकल जाए तो उसका नामोनिशान भी उस पत्थर पर नहीं दिखाई पड़ता। सूर्य की स्वाभाविक धूप जो शरीर पर पड़ती है, कठोर गर्मी में भी उसे शरीर सहन कर लेता है, क्योंकि किरणें बिखरी हुई होती हैं. अतः वे अपना साधारण ताप ही दे पाती हैं। लेकिन नतोदर आतशी शीशे से लेन्स से आर एक इंच भी स्थान में सूर्य किरणों को केन्द्रित कर दिया जाए तो उस ताप को शरीर कार कोई भी अंग सहन न कर सकेगा। कोई भी वस्त्र या कागज उसके निकट होगा तो जले काना न रहेगा। केन्द्रीभूत सूर्य किरण समूह से कहीं भी आग पैदा हो जाती है, केन्द्रित सूर्ण किरणों की शक्ति की तरह किसी एक विषय में केन्द्रित चित्त की शक्ति भी अपरिमित वि जाती है। बहुत बार देखा जाता है कि एक ही व्यक्ति द्वारा एक वार किया हुआ काम बड़ा सुन्दर होता है, और उसी व्यक्ति द्वारा की काम दूसरी बार बिगड़ जाता है। एक ही काम, एक ही कर्ता और एक ही समय, फिर कार्य की यह उत्कृष्टता और निकृष्टता क्यों ? ऐसा तो नहीं हो सकता कि पहली बार जब उसने उस कार्य को सुन्दरतापूर्वक किया, तब उसकी योग्यता अधिक थी। और दूसरी बार जब काम बिगड़ गया तो उसकी योग्यता कुछ कम हो गई थी। बल्ति पहली बार की अपेक्षा दूसरी बार में अभ्यास और अनुभव के कारण योग्यता में वृष्टि होनी चाहिए थी, कमी नहीं।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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