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आनन्द प्रवचन : भाग ६
soonest found to wear their settings."
"चित्त अत्यन्त शक्तिशाली और कार्यक्षम हैं, पर आज वह शरीर के साथ जुड़ा होने पर भी सिर्फ उसे नष्ट करने की सेवा करता है, जैसे बहुमूल्य जवाहरात जहाँ पहनने के लिए जड़े जाते हैं, वही वे टिक जाते हैं । "
यों तो चित्त आँखों से दिखाई नहीं जीता। इसलिए उसका रूठना भी नहीं दीखता, मगर विवेक की आँख से देखें तो वह रूठा हुआ दृष्टिगोचर होगा। रूठने वाले की पहचान है-साथ न देना, कहना न माना, उच्छृंखल होकर उलटे ही चलना, सहयोग न देना, बल्कि नुकसान और तोड़फोड़ ही अधिक करना। जब बच्चा रूठ जाता है तो घर का सामान तोड़ता- फोड़ता है, अपने हाथ पैर पछाड़ता है, घर को नुकसान पहुंचाता है, स्वयं कष्ट पाता है। नौका रूठ जाता है तो वह काम नहीं करता, करता है तो ऐसे ढंग से करता है कि मालिक को और उलटा नुकसान पहुंचे।
चित्त भी जब रूठ जाता है तो वह हनी सत्कार्य एवं सद्विचार में सहयोग नहीं देता, उलटे उलटे काम करने लगता है। कुगप्तर्गगामी होकर सफलता के साधन रूप सद्गुणों को तोड़ता- फोड़ता है, और अपने पर (अन्तर) में ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध, छल, स्वार्थ, आदि विकारों को घुसा देता है। आत्मा के पास बैठकर कभी विचार नहीं करता कि इस घर का बनाव- बिगाड़, हानि-लाभ किस में है ? यहाँ तक कि स्वाध्याय एवं सत्संग का भोजन लेना भी बन्द कर देता है। स्वयं निन्दा, तिरस्कार, दारिद्र्य, शोक संताप एवं असफलता का भागी बनकर कष्ट पाता है, अपने मालिक को भी कष्ट में डाल देता है।
अतः अच्छा तो यही है कि चित्त की अधिक समय तक रूठे और विरुद्ध, उच्छृंखल बने रहने देना नहीं चाहिए। उसे समझा-बुझाकर, मनाकर, झटपट अपना साथी सहयोगी बना लेना चाहिए। अन्यथा नष्ट, उच्छृंखल और विरोधी मन आपके जीवन की समस्त श्री (शोभा) को छिन्न-भिन्न और मटियामेट कर देगा ।
पर मैं देख रहा हूं कि आप लोगों में से अधिकांश का चित्त अब भी रुष्ट और विरोधी बना हुआ है। अगर चित्त ने सहयोग दिया होता तो शरीर की ऐसी दुर्गति न होती, जैसी आज है। व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों जीवनों में आपकी शान्ति और सन्तुलितता हो गई होती। चित्त आपका प्राज्ञाधीन होता तो उसने शरीर को स्वस्थ और समर्थ रखने के लिए संयम बरता होता। लोभ, काम, मोह, अहंकार आदि के चक्कर में न पड़ा होता, बल्कि विषयों से स्वयं निःस्पृह या अनासक्त रहकर आत्मा की सेवा में इन्द्रियों को लगाता, पर उसने मंत्रो आत्मा की फजीहत कर दी, उसकी प्रभुता को भी समाप्त-सी कर दी। अगर चित्त ने आहार-बिहार में नियमितता रखी होती तो देह गुलाब के पुष्प की तरह खिली हुई और चेहरा प्रसन्न होता।
चित्त रूठा बैठा रहा, उसने शरीर, इन्द्रियों, वातावरण, पार्श्ववर्ती जन-समुदाय आदि की गतिविधि पर कोई ध्यान नहीं दिया। फलतः शरीर रुग्ण हो गया, इंद्रियाँ