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________________ १३४ आनन्द प्रवचन भाग ६ अभीष्ट लक्ष्य को नहीं पा रहा है, जिसके लिए लालायित होकर वह भागा-भागा फिर रहा है। नैसर्गिक नियमानुसार चित्त स्वाभावतः बुद्धि की ओर स्वतः गतिशील रहा करता है, लेकिन जब तक उसे अभीष्ट शुद्धता नहीं मिलती है, तब तक वह एक ओर से दूसरी ओर भागता रहता है। अभीष्ट शुद्धता उसकी स्वाभाविकता, प्रसन्नता । वह जब मिल जाती है तो यह सन्तुष्ट, स्थिर एवं शान्त हो जाता है। फिर न वह व्यग्र होता है, न चंचल और न ही उच्छृंखल - विरोधी । जित्त को जो स्ववश करना चाहता है, उसे चाहिए कि वह अभीष्ट शुद्धि की ओर गतिशील होने में उसे मदद दे। एक बार उसे अपने केन्द्र बिन्दु तक पहुंच जाने में सहायता करे जिससे कि वह शुद्ध एवं प्रबुद्ध होकर पिता द्वारा पाले-पोसे हुए सयाने पुत्र की तरह मनुष्य को सहायक एवं सुखदाता बन सके। चित्त में अस्वाभाविकता आना ही उसकी अशुद्धि है। जिसके कारण मनुष्य उसे वश में नहीं रख पाते। वासनाओं की तृप्ति या विषयोत्पत्ति को ही मनुष्य जब जीवन मान लेता है, तब उसमें अस्वाभाविकता उती है, जो कि अशुद्धि का कारण है। वासनाओं से परे सत्य, शिव और सुन्दर जीवन की अनुभूति कर लेने पर मनुष्य का चित्त शान्त, सन्तुष्ट एवं स्थिर हो जाता है ।। चित्त शुद्धि के लिए सांसारिक, नश्वर एवं परिवर्तनशील वस्तुओं से निःसंग, निर्मोह एवं निरासक्त रहना आवश्यक है। असंगता (संयोग से विप्रमुक्ति) आ जाने पर मनुष्य के चित्त में काम, क्रोध, लोभ, मोह, ममत्व एवं अहंकार आदि वे विकृतियां नहीं रह पातीं, जो चित्त की अशुद्धि या मल कही गई हैं। जब ये विकृतियाँ नहीं रहेंगी, तब चित्त शुद्ध, शान्त एवं स्थिर रहेगा । जिससे एक शाश्वत, सात्विक, अनिर्वचनीय प्रसन्नता प्राप्त होती है, जो जीवन का लक्ष्य है । श्रमण भगवान महावीर ने भी दूषित चित्त को व्यक्ति के लिए दुखों की परम्परा बताया है पट्ठचित्तोय | चिणाइ कम्मं जं से पुणो हाई दुहं विवागे - उत्तराधययन सूत्र जिसका चित्त प्रदुष्ट, असुद्ध दूषित है, वह दुष्कर्मों का संचय करता है, और वे ही दुष्कर्म फल भोगने के समय उसके लिए दुःखरूप होते हैं। निष्कर्ष यह है कि जब तक आपका चित्त अशुद्ध एवं दोषयुक्त रहेगा, तब तक आपकी कोई भी क्रिया, यहाँ तक कि कोई भी जप, तप, स्वाध्याय, ध्यान आदि धर्म क्रिया शुद्ध नहीं होगी । भित्रचित्त को कोई भी सफलता, सिद्धि या लक्ष्मी प्राप्त नहीं होगी । एक कवि बहुत ही सुन्दर उक्ति करता है-
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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