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संभिन्नवित्त होता श्री से वंचित : २ १३३
भटकते रहते हैं। स्वादिष्ट चीजें बार-बार खाते रहने पर भी किसी से उनकी तृप्ति नही होती। एक के बाद दूसरे पदार्थ में अधिक स्वाद प्रतीत होता है। इस स्वाद के चक्कर में न तो उन्हें अपने स्वास्थ्य का ध्यान रहता है और न भविष्य का । उनका पाचन संस्थान खराब हो जाता है, स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, तब कहते हैं-हम क्या करें ? हमारा चित्त नहीं मानता। भला चित्त का क्या दोष है ? चित्त तो आपका सहायक मात्र है, वह जिस वस्तु में रुचि देखता है, उसी ओर और वही कार्य किया करता है।
दूसरा व्यक्ति स्वस्थ रहना चाहता है, वह स्वाद के लोभ में पड़कर अंटसंट नहीं खाता। वह आसन, प्राणायाम आदि करता है, उसी प्रकार जप, तप, ध्यान, मौन, संयम आदि क्रियाएं भी करता है। उसका चित्त उस विषय में सहायक बनता है । यों चित्त आपकी इच्छाएं पूर्ण करने का एक महत्वपूर्ण साधन है। इसे शत्रु नहीं मित्र समझना चाहिए।
वयस्क मनुष्य के लिए प्रायः यह बात अज्ञात नहीं रह गई है कि उसे क्या करना चाहिए, क्या नहीं ? क्या करने में उसवत कल्याण या अकल्याण है ? परन्तु कल्याणकारी कार्य करना चाहते हुए भी वह नहीं कर पाता, प्रत्युत उससे परवश ही ऐसे कार्य हो जाते हैं जो अमांगलिक एवं अकल्मणकारी होते हैं, वे न सामाजिक दृष्टि से लाभदायक होते हैं, न आर्थिक धार्मिक दृष्टि से भी ऐसी स्थिति में उसे पश्चाताप होता है। वह मन ही मन रोता, खीजता और स्वयं को कोसता है। वह यह भी जानता है कि इस प्रकार के अवांछनीय कार्य उग्र प्रगति पथ पर सुख-शान्ति, श्री एवं सुधी के महामार्ग पर नहीं बढ़ने देंगे, जिसके कारण उसका बहुमूल्य मानव-जीवन यों ही नष्ट होकर वृथा चला जाएगा, उसे आत्मा के अभ्युदय एवं श्रेय का अवसर नहीं मिलेगा।
मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है, रूह आत्मकल्याण का अधिकारी बने, मुक्ति लक्ष्मी प्राप्त करे, या स्वगश्री को उपलब्ध करे, मानव जीवन का सदुपयोग करे। किन्तु खेद है, चित्त की इसी संभिन्नता के कारण जो कि चित्त दोष के कारण होती है, वह अपने इस महान उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता। चित्त की उच्छृंखलता के कारण वह ऐसा नहीं कर पाता। अगर चित्त स्वार्धना एवं अनुशासित हो जाए तो वह निरुपद्रवी होकर सत्कर्मों और शुभ संकल्पों के माध्यम से सुख का हेतु बनता है। इसी कारण हर मनुष्य चित्त को स्वाधीन रखना चाहता है, मगर स्वाधीन वह तभी हो सकता है, जब वह निर्दोष हो । सदोष या अशुद्धचित्त उपद्रवी होता है। वह विपरीतगामी होने से मनुष्य को भयावह अन्धकार की ओर लिये भागता रहता है।
बहुधा लोग मान लेते हैं कि चित्त की चंकमता ही चित्तदोष है, जिसके कारण वे उसे वश नहीं कर पाते। परन्तु चित्त की चंचानता वास्तव में उसका दोष नहीं है, बल्कि चित्त की चंचलता उसकी विकलता है, रुष्टपटाहट है, जो शुद्धि पाने की इच्छा एवं प्रयत्न से होती है। चित्त की चंचलता इस बात की द्योतक है कि वह अपने